Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
पात्र नहीं होता । इससे यह बात आसानीसे समझमें आ जाती है कि मोक्षमार्गकी प्राप्तिका यथार्थ साधन तो निर्विकार चिघनस्वरूप आत्माका अवलम्बन ही है। वही मेरा परम कर्तव्य है, उसका अवलम्बन लेनेपर निश्चय मोक्षमार्गकी उत्पसिमें व्यवहार धर्म निमित्तमात्र है, निश्चय मोक्षमार्गकी प्राप्तिका निश्चय साधन नहीं। पंचास्तिकाय आदि परमागममें इसी रहस्मको स्पष्ट किया गया है और इसीलिए ही पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनाको उभयनयायत्त कहा गया है । पंचास्तिकाय गाथा १५९ की अमृतचन्द्रसूरि रचित टीका ।
निश्चयधर्मको प्राप्ति तभी निरपेक्ष समझ में आती है जब कि अभेद रत्नत्रय स्वरूप आत्माकी प्राप्ति मात्मामें अभेदरल्लवयके परम साधनभूत आत्मासे स्वीकार की जाय और इसके वितरीत व्यवहारधर्मसे उसकी उत्पत्ति यथार्थमें मानी जाय तो वह निरपेक्षता कैसी? वह तो निरपेक्षताका उपहासमात्र है। यही कारण है कि आगममें उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे ही व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधन कहा है ।
अपर पक्षने आलापपद्धतिका खसरण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि आत्माका व्यवहार रत्नत्रय असद्भूत ब्यबहारमयका विषय नहीं है, किन्तु अपर पक्षका यह लिखना इसलिए ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहार रत्नत्रय आत्माका यथार्थ रलवय नहीं है। उसमें यथार्थ रस्नत्रयका समारोग करके उसे रत्नत्रय कहा गया है, इसलिए तो वह ( व्यवहार रत्नत्रय ) असद्भूत व्यवहारनयका विषय ठहरता है, क्योंकि निश्चय रत्नत्रय भिन्न वस्तु है और व्यबहार रत्नत्रय भिन्न वस्तु है । ये दोनों एक नहीं । यदि एक होते तो ये दो कैसे कहलाते और एक आत्मामें एक साथ अपनी-अपनी पृथक्-पृथक सत्ता रखते हुए कैसे रहते?
इसकी पुष्टिमें अपर पक्षने प्रमाण न देनेकी शिकायत की है सो एक प्रमाण तो हमने बहद व्यसंग्रहका पूर्वमें दिया ही है । दूसरा प्रमाण यह है
पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रं इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः । पापक्रियानिवृस्ति चारित्र है यह भेदोपचार रत्नत्रय परिणति है।
अपर पक्षने लिखा है कि हमने प्रश्न १२ के उत्तरमें 'कुगुरु कुधर्म कुशास्त्रको श्रद्धा गृहीत मिथ्यात्व है तथा सुदेव सुशास्त्र सुगुरुको श्रद्धा सम्यग्दर्शन है।' ऐसा स्वीकार किया है। निवेदन यह है कि मुदेवादिकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है यह कथन हमने व्यवहारनयसे ही स्वीकार किया है। अपर पाने यहाँ जो नियमसारका प्रमाण दिया है उससे भी यही सिद्ध होता है ।।
हमने प्रस्तुत प्रश्न के दूसरे उत्तरमें व्यवहार धर्मको रागपरिणाम लिखकर उसे निश्चय मोक्षमार्गके अनुकूल लिखा है । यह अपर पक्षको मान्य नहीं । उसका कहना है कि 'रागपरिणाम तो निश्चय मोक्षमार्गके अनुकूल नहीं हो सकता ।' आदि ।
निवेदन है कि अपर पक्षने हमारे कथनका हवाला देते हुए एक तो उसे पूरा उद्धृत नहीं किया, दूसरे उसके एक शब्दको पकड़कर टीका करनी प्रारम्भ कर दी। यह तत्त्वविमर्शका मार्ग नहीं कहा जा राकता । हमारा वह पूरा वाक्य इस प्रकार है
वहां उसके साथ होनेवाले व्यवहार धर्मरूप रागपरिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग मागममें कहा है और यतः वह सहचर होनेसे मोक्षमार्गके अनुकूल है इसलिए उसे उपचारसे निश्चय मोक्षमार्गका साधक भी कहा है ।