Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ४ और उसका समाधान यौ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती अपने द्रव्यसंग्रहमें लिखते है
सम्मटुंसणणाण चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे ।
तवद्दारा णिकळ्यदो तनियमइओ णिओ अप्पा ॥३९॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको व्यवहारसे मोक्षका कारण जानो और निश्चयसे सम्यग्दर्शनादि त्रिरूप आत्मा मोक्षका कारण है । परमात्मप्रकाश अध्याय २ दोहक १४ की टीकामें लिखा है
___ वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणम् ।
वीतरागचारित्राविनाभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वम् ।। अर्थ-धीतराग सम्यक्त्वका लक्षण स्वशुद्धात्मानुभूति है और वह वीतराग चारित्रका अधिनाभूत है । यह ही निश्चय सम्यक्त्व है।
__पं० दौलतराम जी ने भी छहवाला सीसरी ढाल में निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया है
पर द्रव्यनलें भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है आप-रूपको जानपनी सो सम्यग्ज्ञान कला है । आप-रूपमें लीन रहे थिर सम्यक्चारित्र सोई
अब व्यवहार मोक्ख मग सुनिये हेतु नियतको होई ।।२।। अर्थ-अन्य द्रव्योंसे पृथक् अपनी आत्माकी रुचि होना निश्चय सम्यग्दर्शन है, केवल निज आत्मा को जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और अपने आत्मामें लीन होना सो निश्चय सम्यक्चारित्र है । अब व्यवहार मोक्षमार्गका वर्णन करते हैं जो कि निश्चय मोक्षमार्गका कारण है।
उपर्युक्त प्रमाणों और व्यवहार तथा निश्चय रलत्रमके स्वरूपपर विचार करनेसे यह स्फुट रूपसे प्रकट हो जाता है कि सहचरताके कारण निश्चय व्यवहार रत्नत्रयमें साध्य-साधकभाव नहीं माना गया है, अपि तु कार्य-कारण भावसे होनेरो माना गया है।
इस प्रकार यह कहना कि 'जहाँ निश्चय मोक्षमार्ग होता है वहां उसके साथ होनेवाले व्यवहार धर्मरूप राग परिणामको व्यवहार मोक्षमार्ग आगममें कहा है। आगम संगत नहीं जान पड़ता है, क्योंकि मात्र रागांशका नाम व्यवहार रत्नत्रय नहीं है और न मात्र रागांश निश्चय रत्नत्रयका साधक हो सकता है।
आपसे पहले उत्तरमे निवेदन किया गया था कि 'आप ऐसे प्रमाण देने की कृपा करें जहाँ मात्र रागांशको व्यवहाररत्नत्रय कहा गया हो और इस प्रकार सहचरताके कारण साध्य-सांघक भाव सिद्ध किया गया हो' किन्तु उनके लिए आपने एक भी प्रमाण नहीं दिया, प्रत्युत पञ्चास्तिकाय गाथा १०५ पर थी जयसेनाचार्यकृत टीका और बृहद्रव्यसंग्रह पृ० २०९ का प्रमाण देकर यही सिद्ध किया है कि व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रयका परम्परासे साधक है।
'व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें साधक है या नहीं ?' इस प्रश्नके मूलमें आशय यह था कि आज समाजके अन्दर प्रवचनकी ऐसी धारा चल पड़ी है जिसमें कहा जाता है-"मैं शुद्ध बुद्ध निरञ्जन है, कालिक