Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
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स्पष्ट विदित होता है कि कपड़ा जब भी कोट बनता है अपनी द्रव्य-पर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे हो बनता है और तभी दर्जीका योग तथा विकल्प आदि अन्य सामग्री उसकी उस पर्यायको उत्पत्तिमें निमित्त होती है ।
अपर पक्ष यद्यपि केवल बाह्य सामग्री के आधारपर कार्य कारणभावका निर्णय करना चाहता है। और उसे वह अनुभवगम्य बतलाता है । किन्तु उसकी यह मान्यता कार्यकारी अन्तरंग योग्यताको न स्वीकार करने का ही फल है जो आगमविरुद्ध होनेसे प्रकृत में स्वीकार करने योग्य नहीं है। लोकमें हमें जितना हमारी इन्द्रियोंसे दिखलाई देता है और उस आधार पर हम जितना निश्चय करते हैं. केवल उतनेको हो अनुभव मान लेना तर्कसंगत नहीं माना जा सकता हमारी समझसे अपर पक्ष प्रकृत में कार्यकारी अन्तरंग योग्यताको स्वीकार किये बिना इसी प्रकारकी भूल कर रहा है जो युक्त नहीं है । अतएव उसे प्रतिविशिष्ट बाह्य सामग्रीको स्वीकृति के साथ यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि जिस समय कोट पर्याय के अनुरूप प्रतिविशिष्ट द्रव्य - पर्याय योग्यता उस कपड़े में उत्पन्न हो जाती है तभी वह कपड़ा कोट पर्यायका उपादान बनता है, अन्य कालमें नहीं । बाह्य सामग्री तो निमित्तमात्र है।
अपर पक्ष कालक्रमसे होनेवाली क्षणिक पर्यायोंके साथ कपड़े को कोटरूप पर्यायका सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं मानता, किन्तु कोई भी व्यंजन पर्याय क्षण-क्षणमें होनेवाली पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न हो ऐसा नहीं है । अपने सदृश परिणामके कारण हम किसी भी व्यंजन पर्यामको वटी, घंटा आदि व्यवहार कालके अनुसार चिरस्थायी कहें यह दूसरी बात है, पर होती हैं वे प्रत्येक समय में उत्पादव्ययशील ही । पर्यायदृष्टिसे जब कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें अन्य अन्य होता है, ऐसी अवस्थामें उक्त कपड़े को भी प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूपसे स्वीकार करना ही तर्क, आगम और अनुभवसम्मत माना जा सकता है । अतएव कपड़े की कोट कालक्रमसे होनेवाली नियत क्रमानुपाती ही है ऐसा यहां समझना चाहिए। अपर पक्षने बाह्य सामग्रीको कारण मानकर जो कुछ भी लिखा है वह सब व्यवहारनयका ही वक्तव्य है । निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करनेपर अनन्त पुद्गलोंके परिणामस्वरूप कपड़ेको जिस काल में अपने उपादान के अनुसार संघात या भेदरूप जिस पर्यायके होनेका नियम है उस कालमें वही पर्याय होती है, क्योंकि प्रत्येक कार्य उपादान कारणके सदृश होता है ऐसा नियम है। इसी तथ्यको प्रगट करते हुए आचार्य जयसेन समयसार गाथा ३७२ की टीका में लिखते हैं
उपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति यस्मात् ।
दर्जी जब उसकी इच्छा में आता है तब कपड़ेका कोट बनाता है यह पराश्रित अनुभव है और कपड़ा उपादान के अनुसार स्वकालमें कोट बनता है यह स्वाश्रित अनुभव है। पराधीनताका सूचक है और दूसरा अनुभव स्वाधीनताका सूचक है। मेरो किसे यथार्थके आश्रय माना जाय 1
अनुभव दोनों हैं। प्रथम अनुभव यह अपर पक्ष ही निर्णय करे कि
अपर पक्ष इष्टोपदेशके 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि श्लोकंको करता । क्यों स्वीकार नहीं करता इसका उसकी ओरसे कोई कारण नहीं कर्म और नोकर्म सबका परिग्रह किया गया है। अपर पक्ष मिट्टी में पट करता । किन्तु मिट्टी पुद्गल द्रव्य है। घट और पट दोनों ही पुद्गलको मिट्टी में पटरूप बनने की योग्यता नहीं है यह तो कहा नहीं जा सकता । परस्परमें एक दूसरे रूप परिणमनेकी
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द्रव्यकर्मके विषय में स्वीकार नहीं दिया गया है। वस्तुतः इस द्वारा बनने की योग्यताको स्वीकार नहीं व्यंजन पर्यायें हैं। ऐसी अवस्था में