Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा अपर पक्षने धवल पु० १ पृ० ३०२ का प्रमाण उपस्थित करने के बाद लिखा है कि 'चार धातिया कर्मोका नाश हो जानेसे फेवलि जिनका उपयोग स्थिर हो जाता है। किसी भी शारीरिक क्रियाके लिए उस रूप प्रयल या उपयोगको आवश्यकता नहीं होती, किन्तु वे क्रियाएँ स्वाभाविक होती है, अतः केवलिसमुबातरूप क्रिया भी स्वाभाविक होती है जो संसार विच्छेदका कारण है। संसारविच्छेदका जो भी कारण है वह सब धर्म है।'
समाधान यह है कि केवली जिनके जो भी शारीरिक क्रिया होती है वह रागपूर्वक नहीं होती इसी अर्थमें आचार्योंने उसे स्वाभाविकी अतएव क्षायिकी कहा है । परन्तु केवलिसमुद्धालरूप क्रिया तो आत्मप्रदेशों की क्रिया है, शरीरकी क्रिया नहीं और उसका हेतु योग तथा आत्माका वीर्यविशेष है, अतः वह तीन अधातिया कोंकी स्थिति वासका हेतु (निमित्त) रही आओ, इसमें बाधा नहीं। किन्तु इससे यह कहाँ सिद्ध हुआ कि शरीरकी क्रियासे आत्मामे धर्म-अधर्म होता है, अर्थात् त्रिकालमें सिद्ध नहीं होता। अतएव पूर्वोक्त विवेचनके आधारसे यही निर्णय करना समीचीन है कि शरीरको क्रिया पर द्रव्य (पुद्गल) की पर्याय होनेसे उसका अजीव तत्त्वमें ही समान होता है, भन : रुपे यात्माके धर्म-अधर्म में उपचारसे निमित्त कहना अन्म बात है । वस्तुतः यह आत्मा अपने शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामोंका वर्ता स्वयं है, अतः वही उनका मुख्य (निश्चय) हेतु है । विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में किया ही है।