Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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प्रथम दौर
: १ :
शंका ४
व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें साधक है या नहीं ?
समाधान
निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चय धर्मकी उत्पत्तिकी अपेक्षा यदि विचार किया जाता है तो व्यवहार धर्म निश्चय धर्म में साधक नहीं है, क्योंकि निश्चय धर्मकी उत्पत्ति पर निरपेक्ष होती है। श्री नियमसारजी में कहा भी है
तह
दंसणवओगो सहा वेदर वियप्पदो दुविहो ।
केवल मंदिरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ||१३|| चक्खु अचक्खू ओहो तिष्णि वि भणिदं विभावदिच्छति । पज्जाओ दुबियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्ख ||१४||
अर्थ — उसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। जो केवल इन्द्रिय रहित और अहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा गया है। तथा चक्षु अचक्षु और अवधि ये तीनों विभाव दर्शन कहे गये हैं, क्योंकि पर्याय दो प्रकारकी है-स्वपरसापेक्ष और निरपेक्ष ।।१३-१४।।
तात्पर्य यह है कि सर्वत्र विभाव पर्याय स्वपरसापेक्ष होती है और स्वभाव पर्याय परनिरपेक्ष
होती है।
पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा इसी बातको स्पष्ट करते हुए इसी नियमसारकी गाथा २८ में भी कहा हैअष्णणिरावेक्खो जो परिणाम सो सहावपज्जावो ।
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जावो ||२८|
अर्थ — अन्य निरपेक्ष जो परिणाम होता है वह स्वभावपर्याय है और स्कन्धरूप जो परिणाम होता है वह विभाव पर्याय है ॥२८॥
यतः निश्चय रत्नत्रय स्वभाव पर्याय है, अतः उसकी उत्पत्तिका साधक व्यवहार धर्म नहीं हो सकता यह उक्त प्रमाणसे स्पष्ट हुँ ।
१७
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तथापि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सविकल्प दशामें व्यवहार धर्म निश्चय धर्मके साथ रहता है, इसलिये व्यवहार धर्म निश्चयधर्मका सहचर होने के कारण साधक (निमित्त ) कहा जाता है।