Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ४ और उसका समाधान
१३१ श्री जयसेन जीने भी पंचास्तिकाय गा० १०५ को टीकामें लिखा हैनिश्चयमोक्षमार्गस्थ परम्परया कारणभतं पबहारमोक्षमार्ग:। अर्य---व्यवहार मोक्षमार्ग परम्परा करके निश्चय मोक्षमार्गका कारणभूत है । इसी ग्रन्थको गाथा १६० तथा १६१ के शीर्षफमें सूरिजीने निम्नप्रकार दिये है
निश्चयमोक्षमार्गसाधमभावेन व्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । तथा व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षगार्गोपन्यासोऽयम् ।
अर्थ- निश्चय मोक्षमार्णका साधनरूप व्यवहार मोक्षमार्ग तथा व्यवहार मोक्षमार्गम साध्यरूप निश्चय मोक्षमार्ग।
इसी प्रकार इन्हीं गाथाओंको टीकामें श्री जयसेनजीने भी स्पष्ट रूपसे व्यवहार मोक्षमार्गको निश्चयमोक्षमार्गका साधक बतलाया है।
निश्चयमोक्षमार्गसाधकव्यवहारमोक्षमार्गकथनरूपेण । पृष्ठ २६२
धी प्रववनसार गा० २०२ की टीकामें सूरिजीने व्यवहार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के विषय में स्पष्ट कहा है कि इनके प्रसादसे जीव घद्धान्मस्थितिको प्राप्त होता है।
श्री परमात्मप्रकाशजी श्लोक की टोकामें भी व्यवहार पंचाचारको निश्चय पंचाचारका साधक बतलाया है।
अध्याय २ इलोक की टीका में भी व्यवहार रत्नत्रयको निश्चयरत्नत्रयका साधक बतलाया है
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपनिश्चयरत्नत्रयलक्षणनिश्चयमोक्षमार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमा जानीहि।
श्री व्यसंग्रहजीकी टीकाके प्रमाण निम्न प्रकार हैंनिश्चयरत्नत्रयं तत्साधकं व्यवहाररत्नत्रयरूपं । -पु० ८१
निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं सद्बहिरंगसहकारिकारणभूतं पंचपरमेष्ठ्याराधन च शरणम् ।' पृ० १०२
अर्हत्सवंशप्रणीतनिश्चय-व्यवहारनयसाध्य-साधकभावेन मन्यते.......सम्यग्दृष्टलक्षणम् ।
अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थ व्याख्यातमिति चेत् ? व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साथ-साधकभावज्ञापनार्थमिति । पृ० १७६
निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम् । पृ० २०४
निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयध्यानस्थ परंपरया कारणभूतं बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गसाधक परमसाधुभक्तिरूपं । -पृ० २१५
द्वादशविधं तपः । तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपन निश्चयतपश्च । -१० २२३
आपने अपने उत्तरके अन्तमें जो यह लिखा है कि 'चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सविकल्प दशामें व्यवहार धर्म निश्चयधर्म के साथ रहता है, इसलिए क्यवहारधर्म निश्च यधर्मका सहचर होमेके कारण साधक वहा गया है। इसके विषय में हमारा आपसे यह निवेदन है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका सहपर होने के कारण साधक किस उद्देश्यसे माना जाता है ? कृपया इसका स्पष्ट्रोकरण कीजिये । पदार्थों में सहचरभाव तो