Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ४ और उसका समाधान
नियमसारकी उल्लिखित ५ वी गाषामें व्यबहार सम्यक्त्वका लक्षण आप्त, आगम और तत्वकी श्रद्धा बतलाया है, रागको नहीं ।
- श्रीपश्वास्तिकायमें गाथा १०६ के पश्चात् श्रीजयसेनाचार्यकृत टीकामें भी एक गाथा आई है, जो इस प्रकार है
एवं जिणपण्णत्ते सदमाणस्स भावदो भावे ।
पुरिसस्साभिणिबोधे दंसणसदो हवदि जुत्ते ॥ अर्थ---इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रणीत पदार्थोंमें रुचिरूप श्रद्धान करते हुए पुरुषको जो मति श्रुत शाम होते है उसे युनाव सन्धष्टि होता है।
श्रीजयसेनाचार्य इसकी टीका लिखते हैं
अत्र सूत्रे यद्यपि क्वापि निर्विकल्पसमाधिकाले निर्विकारशुद्धात्मरुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं स्पृशति तथापि प्रचुरेण बहिरंगपदार्थहरुचिरूपं यद् व्यवहारसम्यक्त्वं तस्यैव तत्र मुख्यता।
अर्य-इस आगम वाक्पमें यद्यपि कभी निर्विकल्प समाधिकालमें निविकार शुद्धात्मरुचिरूप निश्चय सम्यमत्वका स्पर्श होता है तो भी अधिकतासे बहिरंग पदार्थ रुचिरूप जो व्यवहार सम्यवस्व रहता है उसीकी यहाँ पर मुख्यता है ।
कृषि, प्रतीति, श्रद्धा एकपर्यायवाची शब्द है । इसी अन्य व्यवहार मोक्षमार्गका स्वरूप निम्न प्रकार बतलाया है
धम्मादीसदहणं समत्तं णाणमंगपुव्यगदं ।
चिट्ठा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति ।।१६०|| अर्थ-धर्मादि तथ्योंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, अंग-पूर्वगत ज्ञान और तपश्चरणरूप चारित्र यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
इस गाथाका शीर्षक वाक्य श्री अमृतचन्द्र सूरिने निम्न प्रकार दिया है-- निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । अर्थ-आगे निश्चय मोक्षमार्गके साधनरूपसे पहले कहे गये व्यवहार मोक्षमार्गका निर्देश हैं ।
श्री अमृतचन्द्रसूरिने टीकामें इसीका विस्तारसे कथन किया है तथा व्यवहार मोक्षमार्गका साधकभाव और निश्चय मोक्षमार्गका साध्यभाव सिद्ध किया है।
द्रव्यसंग्रहको १३वीं गाथाकी टीका (पृ०३५) में भी स्पष्ट लिखा है
अत्सिर्वज्ञप्रणीतनिश्चय-व्यवहारनय साध्य-साधकभावेन मन्यते" सम्यादृष्टलक्षणम् ।
अर्थ-श्री अर्हन्त सर्वश भगवानके द्वारा कहे हुए निश्चय-गवहारनयको जो साध्यसाधक भावसे मानता है वह सम्यग्दृष्टिका लक्षण है।
इसका स्पष्ट आशय यह हुआ कि जो निश्चयनमको साध्य और व्यवहारनयको साधकभावसे नहीं मानता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है।
परमात्मप्रकाशके दूसरे अध्यायकी १४ वी गाथाकी टीका देखियेवीतरागसर्वज्ञप्रणीतषद्रव्यादिसम्यश्रद्धानशाननताद्यनुष्ठानरूपी व्यवहारमोक्षमार्गः ।