Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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प्रथम दौर
: १ :
शंका ३
जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
समाधान १
इस इनमें यदि धर्म पदका अर्थ पुण्य भाव है तो जीवदयाको पुण्य भाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदयाकी परिगणना शुभ परिणामोंमें की गई है और शुभ परिणामको आगम में पुण्य भाव माना है । परमात्मप्रकाशमें कहा भी है
सुहपरिणामे धम्भु पर असुहे" होइ अहम् |
दोहिषि एहि विवज्जियउ सुक्षु ण बंधइ कम्मु ॥२-७१३
अर्थ – शुभ परिणामसे मुख्यतया धर्म - पुण्य भाव होता है और अशुभ परिणामसे अधर्म - पाप भाव होता है तथा इन दोनों ही प्रकारके भावोसे रहित शुद्ध परिणामवाला, जीव कर्मबन्ध नहीं करता ॥२-७१ ।। सुह इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । 'सुहपरिणामें धम्म पर' शुभपरिणामेन धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्या | 'असुहे" होइ अहम्मु अशुभपरिणामेन भवत्यधर्मः पापम् ।
टीकाका पर्यायार्थसे स्पष्ट है ।
यदि इस प्रश्न में 'धर्म' पदका अर्थ वीतराग परिणति लिया जाय तो जोवदयाको धर्म मानना मिध्यात्व है, क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होने के कारण उसका आस्रव और बन्वतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, संबर और निर्जरातत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता । जैसा कि श्री समयसारको गाथा २६४ से स्पष्ट है-तह विय सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहसणे चेव । कोर अज्झवसरणं जं तेण दु बञ्झए पुष्णं ॥ २६४॥
और इसी प्रकार सत्यमें अचौर्यमें, ब्रह्मचर्य में और अपरिग्रह में जो अध्यवसान किया जाता है उससे पुष्यका बन्ध होता है ॥२६४ ॥
इसकी टीका आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं ---
"यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः तथा यश्च सत्य-दत्त ब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबन्धहेतुः ।
...और जो अहिंसा में अध्यवसाय किया जाता है, उसी प्रकार, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें भी जो अध्यवसाय किया जाता है वह भी एकमात्र पुण्यबन्धका ही कारण है ।