Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जयधवला पु० १ पृ० ६ के 'सुभ-सुद्धपरिणामेहि' का क्या आशय है इसका स्पष्टीकरण हा उत्तरमें हम पहले ही कर आये हैं।
अब तक प्ररूपित समग्र कथनका सार यह है
१. दया पद TEL होनों अौत व्यक्त दशा-ताभ भावके शुम भी और वीतरागभावक अर्थमें भी।
२. शुभभाव परभाव होनेके कारण उसका यथार्थमें आस्रव और बन्ध तस्वमें ही अन्तर्भाव होता है। जहाँ भी इसे निर्जराका हेतु कहा है वहाँ बैसा कथन व्यवहारनमसे ही किया गया है ।
३. वीतरागभाव निजभाव होनेसे उसका अन्तर्भाष संबर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वमें ही होता है।
४, वीतरागभाव व्यवहारसे आस्रव और बन्धका कारण है यह व्यवहार वीतरामभाव पर लागू नहीं होता, क्योंकि यह सब प्रकारके व्यवहारको दृष्टि में गौण कर एकमा निश्चयस्वरूप ज्ञायक आत्माके आलम्मनसे सम्मयस्वरूप उत्पन्न होता है। अतः वह स्वरूपसे ही सब प्रकारके व्यवहारसे अतीत है। उस पर किसी प्रकारका उपचार लागू नहीं होता।
अपर पक्ष जिस प्रकार आशावादी है, उसी प्रकार हम भी आशावादी हैं। क्या ही अच्छा हो कि अपर पक्ष रागरूप पुण्यभाव और वीतराग भावमें वास्तविक अन्तरको समझकर 'दया'पदका जहाँ जो अर्थ इष्ट हो उसे उसी रूप में स्वीकार कर ले और इस प्रकार शुभभाव और वीतरागभावमें एकत्व स्थापित करनेसे अपनेको जुदा रख्ने ।
हमें शुभ भावोंकी अवान्तर परिणतियोंका पूरा ज्ञान हो या न हो । पर हम इतना निश्चयस जानत है कि जो भी शुभभाव उत्पन्न होता है वह कर्म तथा नोकर्मके सम्पर्कक फलस्वरूप ही उत्पन्न होता है, इसलिए वह कर्मस्वभावबाला होनेसे नियमसे कर्मबन्धका हेतु है यह मोक्षका हेतु त्रिकालमें नहीं हो सकता। मुसो तथ्यको स्पष्ट करते हए आचार्य श्रमतचन्द्र समयसार गाथा १५६ को टीका लिखत है
यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो प्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोआहेतुः स सर्वाऽपि प्रतिषिद्धः, तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभवनात् ।
कितने ही प्राणी परमार्थरूप मोक्षहेतु के सिवाय पत, तप आदि शुभकर्म मोक्ष के हेतु है ऐसा मामले हैं। किन्तु वह सभी निषिव है, क्योंकि वह द्रव्यान्तरस्वभाब है, उसके स्वभावसे ज्ञानका होना नहीं बनता। इसी अर्थको स्पष्ट रूपसे समझने के लिए इस कलश पर दृष्टिपात कीजिए
वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि ।
द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ।। १०७ ।। कर्मस्वभावसे वर्तना ज्ञानका होना नहीं है, इसलिए वह ( शुभ भाव ) मोक्षका हेतु नहीं है, क्योंकि वह अन्य ( पुद्गल ) द्रवपके स्वभाववाला है ।। १०७ ॥
हमें प्रसन्नता है कि अपर पश्चने रागमात्रको बन्धका हेतु मान लिया है। किन्तु इतना स्वीकार करनेके बाद भी उसकी ओरसे जो रागांश और रत्नत्रयांशमें एकत्व स्थापित करने के लिए युक्ति दी गई है यह सर्वथा अयोग्य है। इस सम्बन्धमें उस पक्षका कहना है