Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका ३ ओर उसका समाधान
१२१
अपने आत्मामें तन्मय होकर परिणम जाता है । इसीका नाम परम उपान है और इसीका नाम आत्मानुभूति है। ऐसी आत्मानुभूति यदि मुनिके न हो तो वह मुनि कहलानेका पात्र नहीं ।
किन्तु ज्ञानी यह संज्ञा तो सम्यग्दृष्टिकी भी है । कोई अपने आत्माको न जाने (न अनुभवें) और रागके परवश हुआ दाह्य विषयोंमें ही इष्टानिष्ट या हेयोपादेय बुद्धि करता रहे तो वह सच्चा ज्ञानी नहीं । ज्ञानका लक्षण ही यह है कि जो ज्ञान स्वभावरूपसे परिणमता है वह ज्ञानी । और इसके विपरीत जो रागस्वभावरूपसे परिणमता है यह अज्ञानी । ज्ञानी यह सम्यग्दृष्टि की संज्ञा है और अज्ञानी मिध्यादृष्टि को कहते हैं । सर्वार्थसिद्धि अ० १ सू० ३२ में कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास इन तीनका निर्देश किया है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि सम्यग्दृष्टिको कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास नहीं होता । वह परसे भिन्न आत्मस्वरूपको यथावत् जानता है और परद्रव्य भावों से भिन्न जानन कियारूप आत्माका परिणमना इसीका नाम आत्मानुभूति है। स्पष्ट है कि ऐसी आत्मानुभूति
दृष्टि भी होती है जिसे शुभोपयोग कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि शुभोपयोगका विषय परपदार्थ है | आत्मानुभूति उससे भिन्न है । अतएव सिद्ध हुआ कि चतुर्थादि गुणस्थानों में भी शुद्धोपयोग होता है । अपर पक्ष कहेगा कि चतुर्थादि गृणस्थानों में शुद्धोपयोग होता है इसका मागममे कहाँ निर्देश है ? समाधान यह है कि चतुर्थादि गुणास्थानों में धर्मध्यान बहुलतासे होता है और आत्मानुभूति दीर्घकाल बाद अल्प होती है, इसलिए इन गुणस्थानोंमें उसका निर्देश नहीं क्रिया । इसी विषय को स्पष्ट करते हुए पण्डितप्रवर टोडरमलजी अपनी रहस्यपूर्ण चिट्ठी में लिखते है
यहाँ प्रश्न --जो ऐसे अनुभव कोन गुणस्थानमें कहे हैं ?
ताका समाधान — चौथे ही से होय हैं, परन्तु चौथे तो बहुत कालके अन्तरालमें होय है और ऊपरके गुणठाने शीघ्र - शीघ्र होय है ।
बहुरि प्रश्न - जो अनुभव तो निर्विकल्प है तहाँ ऊपरके और नीचेके गुणस्थाननिमें भेद कहा ?
ताका उत्तर - परिणामनकी मग्नता विषे विशेष है। जैसे दोय पुरुष नाम ले हैं अर दो ही का परिणाम नाम विसे है, तहाँ एक के तो मग्नता विशेष है अर एक के स्तोक है तैसे जानना । इससे स्पष्ट है कि चौथेसे सातवें गुणस्थान तक केवल शुभोपयोग ही होता है ऐसा जानना समझना मिथ्या । इतना अवश्य है कि इन गुणस्थानों में जो आत्मानुभूति होती है उसे धर्मध्यान ही कहते हैं, शुक्लध्यान नहीं । शुक्लध्यानमें एक मात्र शुद्धोपयोग ही होता है, परन्तु ध्यान में शुभोपयोग भी होता है और शुद्धोपयोग भी यही इन दोनों में विशेषता है ।
चतुर्थीदि गुणस्थानों में शुभोपयोगके कालमें उससे आस्रव बन्ध तथा संवर- निर्जरा दोनों होते होंगे ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि तब आत्मायें जो सम्यग्दर्शनादिरूप विशुद्धि होती है इसके कारण संवर निर्जरा होती है और शुभोपयोग कारण आम्रयन्बन्ध होता है तथा जब आत्मानुभूति होती है तब इसके कारण संवर-निर्जरा होती है और अबुद्धिपूर्वक रागके कारण याखव चन्ध होता है। इससे एक कालमें एक ही उपयोग होता है यह व्यवस्था भी बन जाती है और किसका कौन यथार्थ कारण है इसका भी ज्ञान हो जाता हूँ ।
अपर पक्षका कहना है कि एक कारणसे अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं । समाधान यह है कि शुभयोग संवर- निर्जराका विरोधी है। पंचास्तिकाय माथा १४४ की टीका बतलाया है
१६