Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ई और उसका समाधान
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देखिए, इस वचनमें बाह्म अनशनादि और आभ्यन्तर विकल्परूप क्रियाके प्रति सपरमभावको सम्यकचारित्र कहा है, इन क्रियाओंको नहीं। इससे स्पष्ट है कि यथार्थ ज्ञानी वही है जो इन क्रियाओंके करनेमात्रसे आत्माका हित न मानकर स्वरूपमें रमणता करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। अन्तस्तत्व समझनेके लिए कठिन तो है पर यह हितकारी होनेसे समझने योग्य अवश्य है।
अपर पभने अहिंसा मन्दिर दरियागंज १ दिल्लीसे प्रकाशित समयसार १० ११८ की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया सो वहाँ पर 'क्रिया' शब्द आत्मा और आस्रवोंमें भेदको जानकर आत्मस्वरूप परिणमनेके अर्थमें ही आया है। इसे गाथा ७२ की अमृतचन्द्र आचार्य कृत टीकासे समझा जा सकता है । ४७ संख्याक कलवा भी इसी मभिप्रायको सूचित करता है।
__ अपर पक्षने समयसार गाथा १५५ और उसको टीकाका प्रमाण दिया है, उससे हमारे इसी अभिप्रायकी ही पुष्टि होती है कि रागादिको निवृत्तिका नाम ही सच्चा चारित्र है। ज्ञान पदसे सम्यग्दर्शनादि तीनरूप परिणत आत्मा ही लिया गया है इसमें हमें तो विवाद नहीं, अपर पक्ष भी इस विकल्पको छोड़ दे कि समयसार कलश १०६-१०७ में 'ज्ञान' पद अकेले ज्ञान के अर्थ में आया है। यदि वह ऐसा नहीं समझता था तो उसकी ओरसे यह शंका ही उपस्थित नहीं की जानी चाहिए थी, क्योंकि प्रकृत विषयसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं।
यहां पर अपर पक्षने उक्त प्रमाणोंके आधारसे जो यह फलित किया है कि 'जीवदया संयम तपरुप ई तथा संवर और निर्जराका कारण होनेसे धर्म है, वह ठीक नहीं, क्योंकि एक तो उन प्रमाणों द्वारा दूसरी वस्तु कही गई है, दूसरे जीवदया पदसे वह पक्ष यदि शुभभावको ग्रहण करता है तो न तो वह यथार्थ तपसंयमख्य है और न ही निश्चयधर्मका यथार्थ हेतु है, अतएव उसे यथार्थ धर्म नहीं माना जा सकता । हो उसे व्यवहार धर्म मानने में मागमसे कोई बाधा नहीं आती और इसलिए उसे आगममें निश्चय धर्मका उपचरित हेतु कहा गया है।
अपर पअने हमारे एक कथनको गलतरूपमें उपस्थित कर जो आशय लिया है वह ठीक नहीं । दूसरे उत्तरमें हमारा कहना यह है-'शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिनबिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन करना हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मार बन्ध ही होता है, उससे संवर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है ।'
इसके स्थान में अपर पक्षने हमारे इस कथनको इन शब्दों में उपस्थित किया है
'आपने वतपालनको शभभावमै गर्भित करके उससे संबर-निर्जरा तथा मोक्षसिद्धि होना असम्भव बतलाया है।'
अपर पक्षको हम बतला देना चाहते है कि हमने प्रसपालनको शुभभावमैं गर्भित नहीं किया है। किन्तु हमने यह लिखा है 'शुभभाव चाहे वह .. ....व्रतोंका पालन करना हो,.... ...यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध ही होता है, उससे संबर, निर्जरा, मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है।'
__ कोई भी निष्पक्ष विचारक यह जान सकता है कि अपर पक्षक उक्त वाक्यमें और हमारे इस कथनमें कितना अन्तर है । अस्तु,
अपर पक्षने यहाँ तत्त्वार्थसूत्र अ० ७ सू०१ को उपस्थितकर और उस द्वारा प्रतिपादित व्यवहार