Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका ३ और उसका समाधानं 'तथा च अमृतचन्द्रसूरिने जो असंयत सम्यग्दृष्टि, संयमासंयमी एवं सरागसंयतके मिश्रित भावोंको अपनी प्रज्ञा उनी भिन्न-भिन्न करते हुए मांस और ननयांश द्वारा कर्मके धन और अवधकी सुन्दर व्यवस्था पुरुषार्थसिद्धघुपाय ग्रन्थके तीन पलोकों की है उनमें एक अखण्डित मिश्रित भावका विश्लेषण समझाने के लिए प्रयत्न किया गया है। यह मिश्रित अखण्ड भाग ही शुभ भाव है, अतः उससे बखवन्ध भी होता है तथा संवर-निर्जरा भी होती है।'
अपने इस अभिप्रायकी पुष्टिके लिये अपर पक्षने भोजन, काढ़ा और कर्मको दृष्टान्त रूपमें उपस्थित किया है। किन्तु उसका यह सद कथन वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेवाला न होनेसे प्रकृत ब्राह्म नहीं है। खुलासा इस प्रकार है
सर्व प्रथम विचार यह करना है कि आचार्य अमृतबन्धने रागांश और रस्मत्रको भिन्न-भिन्न क्यों बतलाया आचार्य श्री कुन्दकुन्द समयसारमें लिखते हैं
जीवो बंधो व तहा छिज्जति सलक्खणेहि नियएहि । पण्णाछेदणाण
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णाणतमावण्या ॥ २९४ ॥
जीब और बम्ध ये दोनों निश्चित अपने-अपने लक्षणों द्वारा बुद्धिरूपी छैनीसे इस तरह छेदने चाहिए कि जिस तरह छेदे हुए वे दोनों नाना हो जय ||२९४।।
इसकी टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
आत्मा और के विधा करनेरूप कार्य में कर्ता आत्माके करण सम्बन्धी विचार करनेपर निश्चयतः अपने से भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है। उसके द्वारा छिन्न हुए नानापको अवश्य ही होते हैं । इसलिए प्रशा द्वारा ही आत्मा और बन्ध भिन्न-भिन्न किये जाते हैं ।
ये दोनों
शंका – आत्मा और अन्य वेत्य चेतकमा के कारण अत्यन्त प्रत्यासन्न होनेसे एकीभूत हैं तथा भेदविज्ञानका अभाव होनेके कारण वे एक चेतक ही हों ऐसे व्यवहारको प्राप्त होते हैं, अतः उनका प्रशाक द्वारा छेदना कैसे शक्य है ?
समाधान-आस्मा और अन्यके नियत स्वलक्षण हैं, उनकी सूक्ष्म अन्तःसन्धिमें प्रशारूपी छैनीको सावधान होकर पटकनेसे उनको छेदा जा सकता है ऐसा हम जानते हैं । -गाथा २९४ की टीकाके कुछ अंशका अर्थ |
ऐसा करनेका फल (प्रयोजन) क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए माथा २९५ को टीकामे आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
आत्मा और बन्धको प्रथम तो उनके नियत स्वयोंके ज्ञान द्वारा सर्वथा ही छेदना चाहिए। तत्पश्चात् रागादिलक्षपवाले समस्त वन्धको तो छोड़ना चाहिए और उपयोग लक्षणवाले शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिए। आत्मा और बन्धके द्विघा कश्मेका वास्तव में यही प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे शुद्ध आत्माका ग्रहण हो जाय ।
अत्यन्त प्रत्यासन्न दो को भिन्न-भिन्न करने की यह रीति है भिन्न जाना जाता है जो उत्पाद है वहीं व्यव है ऐसा होनेपर भी लक्षण
एकमात्र इसी पद्धतिले दोको भ मेदसे आगम में उन्हें दो बतलाया