Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) चर्चा और उसकी समीक्षा मोहमयगारह य मुक्का जे करुणभावसंजुता । ते सम्बद्दुरियलभं हृणंति चारित्तत्वग्गेण || १५८ || अर्थ — जे मुनि मोहमद, गारव इन करि रहित अर करुणा भाव कर सहित हैं, खड्ग करि पापरूपी स्तम्भको हमें है ।
जीवदया दम सच्चं अचोरियं वंभचेरसंतोसे । सम्पदंसणणाणं तओ य सीलस्स परिवारा || १९||
- शीलपाड
अर्थ — जीवदया इप्रियनिका दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, मंतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तर— ये सब शोलके परिवार है ।
आगे गाथा २० में कहा है- सीलं मोक्खस्स सोपाणं--शील मोक्षके लिए नसैनीके समान है । जह-जह णिच्वेदसयं वैरागदया पवट्टेति ।
तह तह अब्भासयर विव्याणं होई पुरिसस्स ॥ १८६४॥२
१०६
-- मूलाराधना
अर्थ - जैसे जैसे निर्वेद, प्रशम, वैराग्य, दया और इन्द्रियोंका दमन बढ़ता है वैसे-वैसे ही पुरुषके पास मोक्ष आता जाता है ।। १८६४ ॥
- भावपाहुड
वे धारित्ररूपी
जीवदया संयम है क्योंकि संयम आत्मधर्म है। कपन करते
और संयम केवल बंचका ही कारण नहीं, किन्तु संवर-निर्जराका भी कारण हैं, उत्तम क्षमा आदि वस धमोंमें संयम भी एक धर्म है। संयम धर्मके स्वरूपका हुए श्री पथनम्ति आचार्य कहते है
जन्तुकुपादितमनसः समितिषु साधोः प्रवर्तमानस्य । प्राणेन्द्रियपरिहारं संयममाहुर्महामुनयः ॥ ११९६ ॥
अर्थात् जिसका मन जीवदयासे भोग रहा है तथा जो ईर्ष्या भाषा आदि पांच समितियोंमें प्रवर्तमान है ऐसे साधुके द्वारा जो षटुकाय जीवों की रक्षा और अपनी इन्द्रियों का दमन किया जाता है उसे गणधर देवादि महामुनि संयम कहते हैं ।
इसी बात को श्री फूलचन्द्रजीने स्वयं इन शब्दों में लिखा है
षट्कायके जीवों की भले प्रकारसे रक्षा करना और इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयोंमें नहीं प्रवृत्त होने देना संयम है।
----तत्त्वार्थसूत्र पृ० ४१७, वर्णो ग्रन्थमालासे प्रकाशित ।
मिध्यावृष्टिके जो aur आदिक शुभभाव सांसारिक सुखकी प्राप्तिके उद्देश्यसे किये जाते हैं वे मात्र रागरूप होनेसे और इन्द्रियसुखको इच्छा लिए हुए होनेसे केल बन्धके ही कारण है। ऐसे ही शुभभावों को श्री प्रवचनसार ( प्रथम अध्याय) आदिक ग्रन्थों में हेय बतलाया है । जो शुभभाव सम्यग्दृष्टिके वीतरागता एवं मोक्षप्राप्ति के लिए होते है उनसे संवर निर्जरा भी होती है। उन्होंसे सम्बन्धित यह प्रश्न है। उनका कन प्रवचनसार (तृतीय अध्याय) आदिक ग्रन्थों में है । इन्हीं को निरतिशय तथा सातिशयके नामसे भी कहा जा सकता है । सम्यग्दृष्टिका दया आदि शुभभाव, कर्मचेतना न मानकर ज्ञानचेतना माना गया है, इसलिए उसे मात्र बन्धका कारण मानना आगमविरुद्ध है ।