Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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का १और उसका समाधान
१११ धर्म पदका अर्थ पुण्यभाव लिया जाय तो जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है । इस उत्तरमें आगम प्रमाण भी इसी अर्थकी पुष्टि में दिये गये।
अपर पक्षने अपनी प्रथम प्रतिशंकामें एक अपेक्षासे हमार उक्त कथनको तो स्वीकार कर लिया । किन्तु साथमें आगमके लगभग बीम प्रमाण उपस्थित कर यह भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया कि जीवदयाका संबर और निर्डमा सन्ग में भी अन्तर्धान होता है इसलिए वह मोशका भी कारण है।
अपर पक्षने ओ प्रमाण उपस्थित किये उनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण हैं जिनमें धर्मको दयाप्रधान कहा गया है, मा करुणाको जीवका स्वभाव कहा गया है या शुभ और शुद्धभावोंसे कर्मोकी क्षपणा कही गई है और साथ ही ऐसे प्रमाण भी उपस्थित किये जिनमें स्पष्ट रूपसे सगरूप पुण्यभावकी सूचना है । किन्तु इनमेंसे किस प्रमाणका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया गया। वे कहाँ किस अपेक्षासे लिखे गये हैं यह भी नहीं बोला गया। इसलिए हमें अपने हसरे उत्सर यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि 'ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही है। यदि पूरे जिनागममेंसे ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाय तो स्वतन्त्र अन्य बन जाय ।
फिर भी उन प्रमाणोंको ध्यानमें रखकर हमने अपने दूसरे उत्तरमें यह स्पष्टीकरण कर दिया कि पुण्य (शुभराग) भावरूप जो दया है वह तो मोक्षका कारण नहीं है । हो, इसका अर्थ वीतरागभाव आदि लिया जाय तो वह संवर और निर्जरारूप होनेसे अवश्य ही मोक्षका कारण है।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आगममें ससग सम्पयत्वको या सरागचारित्र आदिको जहाँ बन्धका कारण कहा है वहीं उन्हें परम्परा मोक्षका कारण भी कहा है । पर उसका आशय दूसरा है, इसलिए प्रकृतमें उसकी विवक्षा नहीं है । यहाँ तो निर्णय इस बातका करना है कि रामरूप शुभभाव या पुण्यभाव भी क्या उसी तरह मोक्ष का कारण है जिस तरह निश्चय रलत्रय । इन दोनोंमें कुछ अन्तर है या दोनों एक समान है। पूरी चर्चाका केन्द्रबिन्दु भी यही है । हमने अपने प्रथम और दूसरे उत्तरमें इसी आशयको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है।
२. प्रतिशंका ३ के आधारसे विचार तत्काल प्रतिशंका ३ विचारके लिए प्रस्तुत है । इसके आरम्भमें हमारे प्रथम उसरको लक्ष्यमें रखकर तीन निष्कर्ष फलित किये गये हैं। प्रथम उत्तर हमने अन्य जीवोंकी दयाको लक्ष्यमें रखकर दिया था, इसलिए इस अपेक्षासे अपर पलने हमारे प्रथम उत्तरका जो यह निष्कर्ष फलित किया है कि 'जीवदया पुण्यभाव है, जो कि शुभ परिणामरूप तो है, किन्तु धर्मरूप नहीं है। वह यथार्थ है, पर जीवोंकी दया पर भाव अर्थात् रागभाव है, इसलिए वह धर्म अर्थात् वीतराग भाव कथमपि महीं हो सकता ।
दूसरा निष्कर्ष हमारे आशयको स्पष्ट नहीं करता । परमात्मप्रकाश गाथा ७१ में भाबोंके तीन भेद किये गये है-धर्म, अधर्म और शुद्ध । स्पष्ट है कि यहाँ धर्म पद शुद्धभावोंसे भिन्न शुभभावके अर्थमें आया है। इसकी टीकाका भी यही आशय है । उसमें स्पष्ट कहा गया है कि शुभभावसे धर्म अर्थात् मुख्यरूपसे पुण्य होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि शुभभावसे वीतराग भावरूप धर्म होता है यह उपचार कथन है । किन्तु अपर पक्षने इसका ऐसा अर्थ किया है जिससे भ्रम होना सम्भव है।
तीसरे निष्कर्षक विषयमें मात्र यही म्बुलासा करना है कि पर जीवोंकी दयाका विकल्प तो सम्यदृष्टियों यहाँ तक कि मुनियोंको भी होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो इनके पूजा, भक्ति, अवमण