Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका ३ और उसका समाधान
१०६
अर्थ- शुभ और शुद्ध भावों द्वारा यदि कमका क्षय न हो तो फिर कर्मीका क्षय किसी तरह हो हो नहीं सकता ।
धवल पु० १ ० ६ के इस मुद्रित अर्थसे भी स्पष्ट हो जाता है कि शुभसे भी कर्मो का क्षय होता है और शुद्धसे भी अतः आपका 'शुद्ध के साथ शुभ ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है ।
हम आशावादी हैं, अतः आशा रखते हैं कि ये पुष्ट प्रमाण दया और पुष्यविषयक आपकी धारणाको परिवर्तित करने में सहायक होंगे । आपने रागभावको केन्द्र बना कर पुण्यभावों या शुभभावोंको केवल कर्मaroh साथ बनेका प्रयत्न किया है यह शुभ भावोंकी अवान्तर परिणतियों पर दृष्टि न जानेका फल जान पड़ता है। इतनी बात तो अवश्य है कि दशर्वे गुणस्थान तक रागभाव लघु लघुतर लघुतम रूपसे पाया जाता है और यह भी सत्य है कि रागभावसे कर्मो का आश्रय तथा बन्ध हुआ करता है। तथा च अमृतचन्द्र सूरिने जो असंयत सम्यग्दृष्टि, संयमासंयमी एवं सरागसंयत के मिश्रित भावोंको अपनी प्रज्ञा छेनी से भिन्न-भिन्न करते हुए रागांश और रत्नत्रयां द्वारा कर्मके बन्धन और अबन्यनकी सुन्दर व्यवस्था पुरुषार्थसिद्धयुपाय प्रत्यके तीन श्लोकों की है उनमें एक अखण्डित मिश्रित भावका विश्लेषण समझाने के लिए प्रयत्न किया गया है । यह मिश्रित अखण्ड भाव ही शुभ भाव है, अतः उससे आस्त्रव बन्ध भी होता है तथा संवर निर्जरा भी होती है। यह मिश्रित शुभ भावकी अखण्डता निम्न प्रकारसे स्पष्ट होती है
हम जिस प्रकार दाल भात रोटी शाक पानी आदि पदार्थोका मिश्रित भोजन करते रहते हैं, काली मिर्च, सौंठ, पीपल, हरड़, गिलोय आदि सम्मिलित पदार्थोको पानी में मिलाकर आगको गर्मोसे जिस प्रकार काढ़ा बनाया जाता है जिसका कि मिला हुआ रस होता है, उसमें वात पित्त कफसे उत्पन्न हुए विविध प्रकारके खाँसी ज्वर आदि रोगोंको कम करने, दूर करने तथा शरीर में बल उत्पन्न करने आदि की सम्मिलित शक्ति होती है उसी प्रकार मुख द्वारा पहुँचे हुए उस विविध प्रकारके लाये हुए भोजनसे एक ही साथ अनेक तरहके सम्मिलित परिणाम हुआ करते हैं। पेटमें काकी तरह रस बनता है उससे खून मांस, हड्डी आदि वा- उपधातुओंकी रचना होती है । उसी भोजनसे अनेक प्रकार के रोग भी दूर होते हैं तथा अनेक प्रकारके छोटे-मोटे नवीन रोग मी उत्पन्न हुआ करते हैं। ठीक ऐसी ही बात कर्मबन्ध और कर्मफलके विषय में प्रति समय हुआ करती है । इन्द्रियों, शरीर, मन, वचन, कषाय आदिकी सम्मिलित क्रियासे प्रति समय सात कमौका बन्ध हुआ करता है और किसी एक समय बायु कर्म सहित ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोका भी बन् हुआ करता है। योगों और कपयों की तीव्र, मन्द आदि परिणति अनुसार उन कर्म प्रकृतियोंकी स्थिति, अनुभाग आदि विविध प्रकारका परिणमत होता है। किसी कर्मप्रकृति में तीव्रता आती है, किसी में मन्दता, किसी में कर्मप्रवेश कम और किसीमें अधिक आते हैं।
इसी तरह की सम्मिलित विविधता आठों कमौके उदय काल में भी हुआ करती है। ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, आत्मशक्ति आदि गुणोंका होनाधिक होना, आकुलता व्याकुलता होना, चिन्ता, राग, द्व ेष, क्रोध, मान आदि कषायोंकी तरतमता होना आदि विविध प्रकारके फल प्रति समय मिला करते हैं। जिस तरह अनेक प्रकारके खाये हुए सम्मिलित भोजनमें उसके द्वारा होनेवाले सम्मिलित परिणमनमें बुद्धि द्वारा विभाजन किया जाता है कि अमुक पदार्थ के कारण अमुक-अमुक शरीरके धातु उपवासु रोग आदिपर अमुक-अमुक सरहका प्रभाव हुबा आदि। इसी तरह सम्मिलित कर्म बघ और कर्म उदयके विषय में भी आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा विभाजन किया जाता है । अतएव कर्मोदय के समय आत्मामें विविध प्रकारका मिश्रित परिणाम