Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका २ और उसका समाधान
नहीं । उसमें अध्यापनरूप निमित्त व्यवहार तभी होता है जब कोई छात्र उसे निमित्त कर स्वयं पढ़ रहा हैं। यह कार्य-कारण व्यवस्था है जो सदाकाल प्रत्येक कार्यपर लागू होती है । अतः अपर पक्षने अपने प्रत्यक्ष ज्ञानको प्रमाण मानकर जो कुछ भी यहाँ लिखा है वह यथार्थ नहीं है ऐसा समझना चाहिए।
अपर पक्ष ने प्रकृतमें पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका, पं० फुलचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र टीका और पार्श्वपुराणके प्रमाण देकर प्रत्येक कार्यमें बाह्य सामग्रीकी आवश्यकता सिद्ध की है। समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें होता है इस सिद्धान्तके अनुसार नियत बाह्य सामग्री नियत आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक होनेसे व्यवहार नयसे आगम में ऐसा कथन किया गया है। किन्तु इतने मात्र इसे यथार्थं कथन न समझकर व्यवहार कथन ही समझना चाहिए। एकके गुण-धर्म को दूसरेका कहना यह व्यवहारका लक्षण हूँ । अतएव व्यवहारनयसे ऐसा ही कथन किया जाता है जो व्यवहार वचन होनेसे आगममें और लोक में स्वीकार किया गया है ।
अगर पक्षने प्रवचनार गाथा २११-२१२ की टीकाका प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि कहीं कहीं मात्र शरीरकी क्रियासे भी धर्म-अधर्मं होता है। जैसे कि मात्र शरीरकी संयमका छेद होना' किन्तु अपर पक्षका यह कथन एकान्तका सूचक होनेसे ठीक नहीं, क्योंकि प्रकृत में यथामार्ग न की गईं कायनेष्टा अभावको सूचित करने के लिए आचार्यने कायचेष्टामात्राधिकृत संयमst बहिरंग संयमछेद कहा है और इसलिए आनार्यने इसका अन्य प्रायश्चित्त कहा है। स्पष्ट है कि इस वचनसे अपर पक्ष के अभिनत की सिद्धि नहीं होती । प्रत्युत इस वचनसे तो वही सिद्ध होता है कि आत्मकार्य में माववान व्यक्ति यदि बाह्य शरीरचेष्टाको प्रयत्नपूर्वक भी करता है तो भी शरीर क्रिया करनेका भाव दोपाधायक मान्हा गया है और यही कारण है कि परमागम में सूत्रोक्त विधिपूर्वक की गई प्रत्येक क्रिया का प्रायश्चित्त कहा है ।
यहाँ अपर पक्षने जो मणिमाली मुनिको कथा दी है वह शयन समयकी घटनासे सम्बन्ध रखती है । उन समय मुनिकी काय गुप्ति ऐसी होनी चाहिए थी कि उसको निमित्त कर शरीर चेष्टा नहीं होती । किन्तु मुनि अपनी कायगुप्ति न रख सके। यह दोष है । इसी दोषका उद्घाटन उस कथा द्वारा किया गया है । मालूम पड़ता है कि यहाँ अगर पक्ष ऐसे उदाहरण उपस्थित कर वह सिद्ध करना चाहता है कि आत्मकार्य में सावधान अन्तरंग परिणामोंके अभाव में भी शरीरकी क्रियामात्रसे धर्म हो जाता है जो युक्त नहीं है ।
केवल जिनके पुण्यको निमित्तकर चलने आदि रूप क्रिया होती है इसमें सन्देह नहीं, पर इतने मासे वह मुक्ति की सावन नहीं मानी जा सकती। अन्यथा योगनिरोध करके केवली जिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा व्युपरत क्रियानिवृत्ति ध्यानको क्यों ध्याते। जिस जिनागम में क्षायिक चारित्रके होनेपर भी योगका सद्भाव होने धाविक चारित्रको सम्पूर्ण चारित्ररूपसे स्वीकार न किया गया हो उस जिनागमसे यह फलित करना कि केवली जिनकी चलने आदि रूप क्रिया मोक्षका कारण है उचित नहीं है । प्रत्युत इससे यही मानना चाहिए कि केवली जिनके जबतक योग और तथनुसार बाह्य क्रिया है तबतक र्यापिथ बालव ही है ।
केवली जिन समुद्वारा अपने वीर्य विशेषसे करते हैं और उसे निमित्त कर तीन कर्मोका स्थितिघात होता है । अन्तरंग में वीतराग परिणाम नहीं है और श्रीर्थविशेष भी नहीं है, फिर भी यह क्रिया हो गई और उसे निमित्तकर उक्त प्रकार कमका स्थितिघात हो गया ऐसा नहीं है ।