Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रत्येक कार्य होता है यह यथार्थ है, कल्पना नहीं । किन्तु इनमेंसे अभ्यन्तर कारण यथार्थ है और वह यथार्थ क्यों है तथा बाह्य कारण अयथार्थ है और वह अयथार्थ क्यों है यह विचार दुसरा है। इसे जो ठीक तरहसे जानकर वैसी श्रद्धा करता है वह कार्य-कारण भाषका यथार्थ ज्ञाता होता है ऐसा यदि हम कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी।
विचार तो कीजिए कि यदि बाह्याम्पतर दोनों प्रकारकी सामग्नी यथार्थ होती तो आचार्य अध्यात्मवृत्त के लिए निमिस व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीको दृष्टिमें गौण करनेका उपदेश क्यों देते और क्यों मोक्षको प्रसिनिमें अध्यातर कारणको ही पर्याप्त बतलाते। वस्ततः इसमें संसारी बने रहने और होनेका बीज छिपा हुआ है । जो पुरुष बाह्य सामग्रीको यथार्थ कारण जान अपनी मिथ्या बुद्धि या रागबुक्षिके कारण उसमें लिपटा रहता है वह सदाकाल संसारी बना रहता है और जो पुरुष अपने आरमाको ही यथार्थ कारण जान तथा व्यवहारसे कारण संज्ञाको प्राप्त बाह्य सामग्रीमें हेयबुद्धि कर अपचे आत्माकी शरण जाता है वह परमात्मपदका अधिकारी होता है।
अपर पक्षने अपने प्रत्यक्षको प्रमाण मानकर और लौकिक दृष्टि से दो-तीन दृष्टान्त उपस्थित कर इस सिद्धान्तका खण्डन करनेका प्रयत्न किया है कि 'उपादानके अपने कार्यके सन्मुख होनेपर निमित्तव्यवहारफे योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है।' किन्तु उस पक्षका यह समग्न कथन कार्यकारणकी विडम्बना करनेवाला ही है, उसकी सिद्धि करनेवाला नहीं । हम पूछते हैं कि मन्दबुद्धि शिष्यके सामने अध्यापन क्रिया करते हुए अध्यापकके रहने पर शियन अपना कोई कार्य क्रिया या नहीं ? यदि कहो कि उस समय शिष्यने अपना कोई कार्य नहीं किया तो शिष्यको उस समय अपरिणामी मानना पड़ेगा। किन्तु इस दोषसे बचनेके लिये अपर पक्ष कहेगा कि शिष्यने उस समय भी अध्ययन कार्यको छोड़कर अपना अन्य कोई कार्य किया है। तो फिर अपर पक्षको यह मान लेना चाहिए कि उस समय शिष्यका जैसा उपादान था उसके अनुरूप उसने अपना कार्य किया और उसमें निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री निमित्त हुई, अध्यापक निमित्त नहीं हुआ। जिस कार्यको लक्ष्यमें रखकर अपर पक्षने यहाँ दोष दिया है, वस्तुतः उस कार्यका शिष्य अस समय उपावान ही नहीं था। यही कारण है कि अध्यापन क्रिया रत अध्यापकके होनेपर भी वह निमित्त व्यवहारके अयोग्य ही बना रहा । यह कार्यकारण व्यवस्था है, जो प्रत्येक व्यके परिणाम स्वभाव के अनुरूप होनेसे इस तथ्यकी पुष्टि करती है कि 'उपादान के कार्यके सन्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्म सामग्री मिलती ही है।'
प्रकृसमें अपर पक्ष की सबसे बड़ी भूल यह है कि विवक्षित कार्य तो हुआ नहीं फिर भी वह, जिसमें उस समय उसने जिस कार्मको कल्पना कर रखी है, उसे उस समय उसका उपादान मानता है और इस आधारपर यह लिखनेका साहस करता है कि सुबोध छात्र है पर अध्यापक आदि नहीं मिले, इसलिए कार्य नहीं हुआ। अपर पक्ष को समझना चाहिए कि सुबोध छात्रका होना अन्य बात है और छात्रका उपादान होकर अध्ययन क्रियासे परिणत होना अन्य बात है। इसी प्रकार अपर पशको यह भी समझना चाहिए कि अध्यापकका अध्यापनरूप क्रियाका करना अन्य बात है और उस क्रिया द्वारा अन्यके कार्य व्यवहारसे निमित्त बममा अन्य बात है।
अध्यापक अध्यापन कला सीखने के लिए एकान्तमें भी अध्यापन किया कर सकता है और मन्दबुद्धि छात्र के सामने भी इस क्रियाको कर सकता है। पर इन दोनों स्थलोंपर वह निमित्त व्यवहार पदवीका पात्र