Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर ( खनिया ) तस्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा संसारकारणनिवृत्ति प्रत्यागूणस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यक्पारित्रम् ।
संसारके कारणकी निवृत्ति के प्रति उद्यत हुए ज्ञानी पुरुषके कर्मके ग्रहणमें निमित्तभूत क्रियाका उपरत होना सम्पकचारित्र है।
यह आगम वचन है। इससे तो यही विदित होता है कि रागमूलक या मोगमूलफ जो भी क्रिया होती है यह मात्र बन्धका हेतु है । अब अपर पक्ष ही बतलावे कि उक्त क्रियाके सिवाय और ऐसी शरीरकी कौन-सी क्रिया बचती है जिसे मोश्चका हेतु माना जाय । हमने मो जीवित शरीरको क्रियाको धर्म-अधर्मका निमित्त कहा है | किन्तु उसका इतना ही माशय है कि बाह्य विषयमें इष्टानिष्ट बुद्धि होने पर उसके साथ जो भी शरीरको क्रिया होती है उसे उपचारसे अवर्मका निमित्त कहा जाता है और इसी प्रकार आत्मसम्मुख हुए जीवके धर्मपरिणतिने कालमें शरीरको जो भी क्रिया होती है उसे उपचारसे धर्मका निमित्त कहा जाता है। इसी प्रकार देव-गुरु-शास्त्रको लक्ष्यकर शुभभावके होने पर उसके साथ जो भी क्रिया होती है उसे उपचारसे उसी भावका निमित्त कहा जाता है।
___आचार्य विद्यानन्दिने तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ० ६५ में 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए बतलाया है कि विशिष्ट सम्बादर्शन-ज्ञान-चारित्र ही साक्षात् मोक्षमार्ग है । इसपर शंका हुई कि इस प्रकार अवधारण करने पर एकान्तकी प्रसक्ति होती है। तब इसका समाधान करते हुए वे क्या लिखते है इस पर ध्यान दोजिए
___ मन्येवमप्यवधारणे तदेकान्तानुषंग इति चेत् ? नायमनेकान्तवादिनामुपालम्भः, नयार्पणादेकान्तस्येष्टत्वात्, प्रमाणार्पणादेवानेकान्तस्थ व्यवस्थितेः।
शंका-इस प्रकार भी अवधारण करने पर उस (मोक्षमार्ग) के एकान्तका अनुषंग होता है ?
समाधान-नहीं, यह एकान्तवादियोंका उपालम्भ ठीक नहीं, क्योंकि नय (निश्चयनय) की मुख्यतामें ऐसा एकान्त हमें इष्ट है । प्रमाणको मुख्पतासे ही अनेकान्तको व्यवस्था है ।।
कथंचित् सम्यग्दर्शन आदि एक-एकको और साथ ही कथंचित् सम्यग्दर्शनादि तीनोंको मिलाकर युगपत् मोक्षका कारण कहना यह प्रमाणबुष्टि है। निश्चवनय दृष्टि तो यही है कि सम्यग्दर्शनादि तीनरूप परिणत आत्मा ही मोसका साक्षात् कारण है । इसी तथ्यको श्लोकवातिकके उक्त वचन द्वारा स्पष्ट किया गया है।
यह प्रमाणदृष्टि और निश्चयनयदृष्टिका निर्देशक वचन है । इससे हमें यह सुस्पष्ट रूपसे ज्ञात हो जाता है कि सम्यग्दर्शनादि एक-एकको मोक्ष का कारण कहना यह सद्भूत होकर भी जब कि व्यवहारनयका सूचक वचन है। ऐसी अवस्थामें विशिष्ट काल या शरीरकी क्रियाको उसका हेतु कहना यह तो असद्भूतव्यवहार वचन ही ठहरेगा । इसे यथार्थ कहना तो दो द्रव्योंको मिलाकर एक कहने के बराबर है ।
अपर पक्षका कहना है कि 'मात्र बाह्म या आभ्यन्तरके ही कारण माननेपर पुरुषके मोक्षको सिसि नहीं हो सकती।' आदि ।
समाधान यह है कि जिस समय जो कार्य होता है उस समय उसके अनुकूल आभ्यन्तर सामग्रीको समग्रताके समान बाह्य सामग्रीकी समग्रता होती है। इसीका नाम द्रध्यगत स्वभाव है । किन्तु इन दोनों मेंसे किसमें किस रूपसे कारणता है इसका विचार करनेपर विदित होता है कि बाह्य सामग्रीमें कारणता असद्भूत व्यवहारनयसे ही बन सकती है। आभ्यन्तर सामग्री में कारणताको जिस प्रकार सद्भुत माना गया