Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । rateप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ||३||
तीर्थंकरादि गणधर देवोंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको धर्म कहा है तथा इनसे उलटे मिथ्यादर्शनादि तीनों संसारके कारण हूँ ||३|| -
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इन प्रमाणोंसे स्पष्ट हैं कि जो धर्म और अधर्मके कारण हैं वे स्वयं धर्म और अधर्म भी है । यतः अपर पक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म और अधर्मकी प्राप्ति मानता है अतः उस पक्ष के इस कथनसे जीवित शरीरकी क्रिया भी स्वयं धर्म-अधर्म सिद्ध हो जाती । यही कारण है कि मूल प्रश्नके उत्तरके प्रारम्भमें ही हमने यह स्ट्रीकरण करना उचित कर कि आजित शरीरकी क्रिया न तो स्वयं आत्माका धर्म ही है और न अधर्म ही । अपर पक्ष ने अपनी इस प्रतिशंका ३ में विधिमुखसे यह तो स्वीकार कर लिया है कि 'धर्म और अधर्म आत्माको परिणतियाँ हैं और वे आत्मामें ही अभिव्यक्त होते हैं।' किन्तु निषेध मुखसे वह पक्ष यह और स्वीकार कर लेता कि जीवित शरीरको क्रिया न तो स्वयं धर्म है और न अधर्म हो, तो उस पक्ष के इस कथन से यह शंका दूर हो जाती कि वह पक्ष अपनी भूल शंका द्वारा कहीं जीवित शरीरकी क्रियाको ही तो धर्म-अधर्म नहीं ठहराना चाह रहा है । यतः इस शंकाका निर्मूलन हो जाय इसी भावको ध्यान में रखकर हमने प्रथम उत्तरके प्रारम्भ में यह खुलासा किया है कि जीवित शरीरकी क्रिया न तो स्वयं आत्माका धर्म है और न अधर्म ही ।
अपर पक्षका कहना है कि आत्माके धर्म-अधर्मके अभिव्यक्त होने में जीवित शरीरकी क्रियाएँ निमित्त हैं सो इसको हमारी ओरसे अस्वीकार कहाँ किया गया है। अपने दोनों उसरों में हमने इसे स्पष्ट कर दिया है। किन्तु शरीर द्वारा होनेवाली समीचीन और असमीचीन प्रवृत्तियोंके सम्बन्धमें यह खुलासा कर देना आवश्यक है कि आत्माके शुभाशुभ परिणामोंके आधारपर ही उन्हें समीचीन और असमीचीन कहा जाता है । वे स्वयं समीचीन और असमीचीन नहीं होतीं। यदि वे स्वयं समीचीन और असमीचीन होने लगें तो अपने परिणामोंके सम्हालकी आवश्यकता ही न रह जाय । सागारधर्माभूत अ० ४ में इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है
विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्षत |
भावे साधनो बन्ध-मोक्षी चेन्नाभविष्यताम् ॥ २३ ॥
यदि बन्ध और मोक्ष के भाव ही एकमात्र कारण न हों तो जीवोंसे व्याप्त पूरे लोकमें कहीं विचरता हुआ कोई भी प्राणी मोक्ष को प्राप्त करे ||२३||
इसी तथ्यको स्पष्ट करनेवाला सर्वार्थसिद्धिका यह वचन भी लक्ष्य में लेने योग्य है। उसके छठे अध्याय सूत्र तीनमें कहा है-
कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ? शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः अशुभ परिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः । शंका- योगका शुभाशुभपना किस कारण से है ?
समाधान —जो योग शुभ परिणामोंको निमित्त कर होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामोंको निमित्त कर होता है वह अशुभ योग हूँ ।
इससे स्पष्ट है कि जीवित शरीरकी क्रिया स्वयं समोचीन और असमीचीन नहीं हुआ करती, किन्तु शुभाशुभ परिणाम के आधारसे उसमें समीचीन और असमीचीनपनेका व्यवहार किया जाता है ।
जीवके