Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
आगे आप लिखते हैं कि 'जो उपादानकी सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार कार्य - कालमें निमित्त अवश्य मिलते है। ऐसा नहीं है कि उपादान अपना कार्य करने के सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल ऐसे निमित्त न मिलें। सो आपका ऐसा लिखना आगम विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि धवला पु० १ पृ० १५० पर
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निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः उक्तञ्च
सिद्धत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा । उमलविगमे नियमो ताणं कणगोवलाणमिव ॥
इस गाथाका अर्थ लिखते हुए लिखा है कि जिसने निर्वाणको पुरस्कृत किया है उसको मध्य कहते हैं। कहा भी है- जो जीब सिद्धत्वके योग्य हैं उन्हें भव्य कहते हैं, किन्तु उनके कनकोपलके समान मलका नाश होनेका नियम नहीं है ।
इसके विशेषार्थ में पं० फूलचन्द्र जी ने स्वयं लिखा है
सिद्धत्व की योग्यता रखते हुए भी कोई जीव सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं और कोई जीव सिद्ध अवस्थाकी नहीं प्राप्त कर सकते हैं । जो भव्य होते हुए भी सिद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं कर सकते हैं उनके लिए यह कारण बतलाया है कि जिस प्रकार स्वर्ण पाषाणमें सोना रहते हुए भी उसका अलग किया जाना निश्चित नहीं है उसी प्रकार सिद्ध अवस्थाकी योग्यता रखते हुए भी तदनुकूल सामग्री के न मिलनेसे सिद्ध पदवी प्राप्त नहीं होती है।
इस प्रकार यह स्वीकार किया गया है कि भव्य जीवमें योग्यता होते हुए भी उपदेश आदि सामग्री रूप निमिलोंके न मिलनेसे सिद्धपदकी प्राप्ति नहीं होती। इसीके लिए शीलवती विधवा स्त्री का दृष्टान्त दिया गया है । जिस प्रकार शीलवती विषवा स्त्री में पुत्र उत्पन्न करने की योग्यता तो है. किन्तु पतिका मरण हो जाने के कारण पतिरूप निमित्तका संयोग न मिलने से पुत्रोत्पत्ति नहीं होती ।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं कि उपादान में योग्यता है, परन्तु निमित्त न मिलनेसे कार्य नहीं होता । वर्णो ग्रन्थमालासे प्रकाशित तस्वार्थसूत्रके ० २१८ पर पं० फूलचन्द्रजीने स्वयं इस प्रकार लिखा है
जो कारण स्वयं कार्यरूप परिणम जाता है वह उपादान कारण कहलाता है। किन्तु ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य उपादान कारण और निमित्तकारण इन दोके मेलसे होता है, केवल एक कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती छात्र सुबोध है पर अध्यापक या पुस्तकका निमित्त न मिले तो वह पढ़ नहीं सकता । यहाँ उपादान है किन्तु निमित्त नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ। छात्रको अध्यापक या पुस्तकका निमित्त मिल रहा है पर वह मन्दबुद्धि है, इसलिए भी वह पढ़ नहीं सकता । यहां निमित्त है किन्तु उपादान नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ । निमित्तके बिना केवल उपादानसे ariat उत्पत्ति नहीं होती ।
इस प्रकार जब यह स्वीकार किया जा चुका है कि उपादान उपस्थित हैं, किन्तु निमित्त नहीं है, इसलिए कार्य नहीं हुआ, इसके विरुद्ध आपको ऐसा नहीं कि उपाशन अपना कार्य करनेके सम्मुख हो और उस कार्य में अनुकूल निमित्त न मिलें, इस बातको कौन ठीक मान लेगा ?
प्रत्यक्षमें देखा जाता है कि मनुष्य देखना चाहता है, किन्तु मोतियाबिन्द आ जानेसे अथवा अन्य कोई चीजकी जड़ आ जानेसे नहीं देख सकता । चलना चाहता है पर लकवा मार जानेसे चल नहीं सकता !