Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका २ और उसका समाधान चिसकी स्थिरतारूप ध्यानके बिना मोक्षा नहीं हो सकता और चिप्सकी स्थिरता शरीर बलके बिना नहीं हो सकती । कहा भी है-- विशिष्ट संहननादिशक्त्यभावानिरन्तरं तत्र स्थातुं न शक्नोति ।
-पम्चास्तिकाय गाथा १७० की टीका अर्थात् विशिष्ट शक्तिके अभावके कारण निजस्वभावनिरन्तर नहीं ठहर सकता । इसी बातको पं० फुलचन्द्रजीने तत्वार्थसूत्रकी टीकामें लिखा है
चित्तको स्थिर रखनेके लिए आवश्यक शरीरबल अपेक्षित रहता है जो उक्त तीन संहननवालोंके सिवा अन्यके नहीं हो सकता।
अतः मोक्षमार्ममें शरीरबल अपेक्षित रहता है अर्थात् शरीरबलरूप निमित्त के बिना मुक्ति नहीं हो सकती। पाचपुरागामें कहा भी है
यह तन पाय महा तप कीजे यामें सार यही है । मात्र शरीरकी किंगासे धर्म-अधर्म नहीं होता सा एकान्त नियम भी नहीं है, क्योंकि कहीं-कहीं मात्र शरीरकी क्रियासे भी धर्म-अधर्म होता है। जैसे कि मात्र शरीरकी चेष्टासे संयमका छेद होना । प्रवचनसारकी गाथा २११-२१२ की टीका देखिये
द्विविधः किल संयमस्य छेदः-बहिरङ्लोऽन्तरङ्गश्च । तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरंगः, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरङ्गः । तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमारब्धायाः कायचेष्टायाः कथंचिद्बहिरङ्गच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वथान्तरङ्गच्छेदवजितत्वादालोचनपूर्विकया क्रिययेव प्रतीकारः । यदा तु म एवोपयोगाधिकृतच्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धधमणाश्रयालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ।
अर्थ-संयमका छेद दो प्रकारका है-बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टासम्बन्धी बहिरंगच्छेद है और उपयोगसम्बन्धी अन्तरंग छेद है। उसमें यदि भलीभाँति उपयुक्त श्रमणके प्रयत्नात कायचेष्टाका कथंचित् बहिरंगच्छेद होता है तो वह सर्वथा अन्तरंग छेदसे रहित है इसलिए आलोचना पूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार होता है, किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसम्बन्धी छेद होनेसे साक्षात् रुंदमें ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहार विधिमें कुशल श्रमणके आश्रयसे, भालोचनापूर्वक, उनसे उपदिष्ट अनुष्ठानद्वारा प्रतिसंधान होता है ।
इस प्रकार प्रवचनसारके उक्त उल्लेखसे यह सिद्ध है कि मात्र कायथेष्टासे भी अधर्म होता है । यह ही बात श्री १०८ मणिमालीकी कथासे भी सिद्ध होती है कि मात्र शरीरको क्रियासे कायगुप्तिरूपी संयमका छेव हो गया। वह कथा इस प्रकार है-श्री १०८ मणिमाली मुनिराज विहार करते हुए एक दिन उज्जयिनी पहुँचे और वहाँकी श्मशान भूमिमें ध्यानकी सिद्धि निमित्त मिश्चलरूपसे स्थिर हो गये। उसी समय एक कोरिया मंत्रवादी महायताली विद्या सिद्ध करनेके लिए वहां आया । ध्यानमें स्थित मुनि महाराजके शरीरको उसने मुका शरीर समझा । कहीं से वह एक दूसरा मस्तक उठा लाया और पीछेसे मुनिराजके मस्तकके साथ जोड़ दिया। खीर पकाने के लिए उस कोरिवाने एक मस्तकका चूला बनाया और अग्नि जला दी । अग्निके तापसे मुनि महाराजकी नसें संकुचित हो गई, जिससे उनके दोनों हाथ ऊपरको उठ गये। इससे