Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका २और उसका समाधान आपने नाटक समयसारके दीई उद्धृत करते हुए 19 स चरीको विले, धर्म माननेवाले मिध्यादृष्टिका उल्लेख किया है सो उससे प्रश्नका समाधान नहीं होता, क्योंकि शरीरको क्रियाको तो सर्वथा हम भी धर्म-अधर्म नहीं मानते। हमारा अभिप्राय तो यह है कि आत्माको धर्म और अधर्म परिणसिमें जीवित शरीरकी क्रिया निमित्त है, जिसे आप निमिस या उपचार मात्र कहकर अवस्तुभूत-असत्यार्य सिद्ध करना चाहते हैं, पर क्या वास्तवमें यह सब अवस्तुभूत है ? यदि अवस्तुभूत ही है तो मोक्षप्राप्सिके लिए कर्मभूमिज मनुष्यका देह और ज्यानको सिद्धिके लिए उत्तम संहनन आदिको अनिवार्यता शास्त्र संमत नहीं रह जायगी।
बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। नवान्यथा मोविधिश्च पुंसां तेनाभिकन्धस्त्वमृषिर्बुधानाम् ॥६॥
-स्ययंभूस्तोत्र समन्तभन्न स्वामीके इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि कार्यको उत्पत्ति में बाह्य और आभ्यन्तर दोनों कारणोंको पूर्णता आवश्यक है । द्रव्यका-पदार्थका कार्योत्पत्ति के विषयमें यही स्वभाव है । अन्यया-मात्र बाह्य या आभ्यन्तरके ही कारण माननेपर पुरुषके मोक्षकी सिद्धि नहीं हो सकती।
स्वयंभूस्तोत्रके इससे पूर्ववर्ती श्लोक-'यबस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेः' का जो अर्थ आपने अपने प्रत्युत्तरमें किया है उससे बातरोपाधि-लोकके साथ पूर्यापर विरोध प्रतीत होता है, इसलिए हमारी दृष्टिसे यदि उसका निम्न प्रकार अर्थ किया जाय तो उससे पूर्वापर विरोध ही दूर नहीं होता, बल्कि संस्कृत टीकाकारके भावकी भी सुरक्षा होती है ।
अर्थ--गुण-दोषको उत्पत्तिमें जो बाह्य वस्तु निमित्त है वह चूंकि अध्यात्मवृत्तमात्मामें होनेवाले शुभाशुभ लक्षणरूप अन्तरंग मूल कारणका अंगभूत है-सहकारी कारण है, अतः केवल अन्तरंग भी कारण कहा जा सकता है।
फिर यह पान की विशेषताको लक्ष्यमें रखकर कथन किया गया है, अतः इससे कार्यकारणकी व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता । पात्रकी विशेषताको दृष्टि में रखकर किसी कथनको विवक्षित-मुख्य और अविवक्षित-गौण तो किया जा सकता है । परन्तु उसे अवस्तुभूत-अपरमार्थ नहीं कहा जा सकता।
धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मणः ।
अङ्गित्वेज्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता ।।२२॥ -अष्टसहस्री समन्तभद्र स्वामीने अंग शब्दका प्रयोग किया है, जिसका अर्थ टीकाकारने--- शेषान्तानां स्याच्छन्दसूचितान्यधर्माणां तदंगता तद्गुणभावः । पंमित में गौण अर्थ किया है और गौणका अर्थविवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽज्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते ।
-स्वयंभूस्तोत्र ५३ श्लोक द्वारा अविवक्षित बतलाया है, परन्तु अविवक्षितको निरात्मक-असद्भूत नहीं बतलाया ।
तत्वार्थसूत्रके उद्धरणोंके विषयमें आपने लिखा सो उसका स्पष्टीकरण यह है कि मूल प्रश्नमें धर्मअधर्म दोनोंकी चर्चा है, न केवल धर्म को। वहाँ अभिप्राय मात्र इतना है कि कार्यसिद्धि में पर पदार्थ कारण पड़ता है या नहीं। उसकी और आपकी समन्वयात्मक दृष्टि नहीं मई मालूम होती है ।