Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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वांका २ और उसका समाधान
इसकी टोकामें कहा है
शरीरं च वाचं च मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्ये । ततो न तेषु कश्चिदपि मम पक्षपातोऽस्ति । सर्वत्राप्यहमत्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । तथाहि न खल्वहं शरीरवाङ मनसां स्वरूपाधारभूतमवेतनद्रव्यमस्मि । तानि खलु मां स्वरूपाधारमन्तरेणाप्यात्मन: स्वरूप धारयन्ति । ततोऽहं शरीर-चाङ मनःपक्षपातमपास्यात्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । इत्यादि ।।
अर्थ-म शरीर, वाणी और मनको परद्र ब्यके रूपमें समझता है, इसलिए मुझे उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है। मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हैं। यथा-यास्तव में मैं शरीर, वाणी और मनके स्वरूपका आधारभूत अधेतन द्रव्य नहीं हूँ। मेरे स्वरूपाधार हुए विना ही वे वास्तघमें अपने स्वरूपको धारण करते है । इसलिए मैं शरीर, वाणी और मनका पक्षपात छोडकर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। आगे पुनः लिखा है
देहो य मणो वाणी पोग्गलदस्यप्पग ति णिष्ट्ठिा ।
पोग्गलदव्यं हि पुणो पिंडो परमाणुदवाण ॥१६१।। अर्थ-देह, मन और वाणी पुद्गलमव्यात्मक है ऐसा जिनदेवने कहा है । और वे पुद्गलद्रव्य परमाणु द्रव्योंका पिण्ड है ।।१६१॥
प्रवचनसार गाथा १६२ तथा नियमसारमें भी यही स्वीकार किया गया है, इसलिए इनका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता यह तो कहा नहीं जा सकता।
प्रतिशंका २ द्वारा श्री तत्त्वार्थसूत्र आदिके उद्धरण देकर जो जीवित शरीरसे धर्मकी प्राप्तिका समर्थन किया गया है सो वह आसवफा प्रकरण है। उस अध्यायमें धर्मका निर्देश नहीं किया गया है । उसमें भी जहाँ कहाँ निमित्तकी अपेक्षा निर्देश भी आ सो निमित्त तो अनेक पदार्थ होते हैं तो क्या इतने मात्रसे उन सबसे धमकी प्राप्ति मानी जायगी। शरीर आदि पदार्थों को जहां भी निमित्त लिखा है सो वह विजातीय असद्भूत व्यवहार नयकी अपेक्षा ही निमित्त कहा है। इसी तथ्यको स्वीकार करते हुए सोलापूरसे मुटित नयचक्र पृ० ४५ में इन शब्दों द्वारा स्वीकार किया है---
शरीरमपि यो जीवं प्राणी प्राणिनो वदति स्फुटम् ।
असद्भूतो विजातीयो ज्ञातव्यो मुनिवाक्यतः ॥ १ ॥ अर्थ-जो प्राणियोंके शरीरको भी जीव कहता है उसे जिनदेवके उपदेशानुसार विजातीय असद्भूत व्यवहार जानना चाहिए ॥१॥ स्वयंभस्तोत्रमें थी वासुपूज्य भगवान्को स्तुति करते हुए कहा है
यवस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेः निमित्तमाभ्यन्तरमूलहेतोः।
अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमाभ्यन्तरं केवलमप्यल ते॥५९।। अर्थ-आम्यम्तर अर्थात उपादानकारण जिसका मूल हेतु है ऐसी गुण और दोषोंकी उत्पत्तिका जो बाह्म वस्तु निमित्तमात्र है. मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुए जीबके लिए वह गौण है, क्योंकि हे भगवन् ! आपके मतमें उपादान हेतु कार्य करने के लिए पर्याप्त है ।।५९॥