Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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द्वितीय दौर
: २:
शंका २
जीवित शरीरको क्रिया से आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं ?
प्रतिशंका २
हमारे उक्त प्रश्नके उत्तर में जो आपने यह लिखा है कि 'जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यको पर्याय होने के कारण उसका अजीव तत्वमें अन्तर्भाव होता है।' सो आपका यह लिखना आगम, अनुभव तथा प्रत्यक्ष से विरुद्ध है, क्योंकि जीवित शरीरको सर्वथा अजीव तत्व मान लेनेपर जीवित तथा मृतक शरीरमें कुछ अन्तर नहीं रहता । जीवित शरीर इष्ट स्थानपर जाता है, पर मृतक शरीर इष्ट स्थानपर नहीं जा भा सकता । दाँतोंसे काटना, मारना पीटना, तलवार बन्दूक लाठी चलाकर दूसरेका घात करना, पूजा-प्रक्षाल करना, सत्पात्रों को दान देना, लिखना, केशलोंच करना, देखना, सुनना, सूंघना, बोलना, प्रश्नउत्तर करना, शराब पीना, मांस खाना आदि क्रियाएँ यदि अजीव तत्त्वको ही हैं तो इन क्रियाओं द्वारा आत्माको सम्मान, अपमान, दण्ड, जेल आदि क्यों भोगना पड़ता है ? तथा स्वर्ग-नरक बादि क्यों जाना पड़ता है ?
अणुव्रत महाव्रत, बहिरङ्ग लप, समिति आदि जीवित शरीरसे ही होते हैं, भगवान् ऋषभदेवने १००० वर्ष तक तपस्या शरीर द्वारारा की थी । अर्हन्त भगवान्का विहार तथा दिव्यध्वनि शरीर द्वारा ही होती है ।
कायवाङ्मनः कर्म योग: ( ६-१ ० सू० ) इस सूत्र के अनुसार कर्मास में शरीर तथा तत्सम्बन्धी वचन एवं द्रव्यमन कारण हैं। अजीवाधिकरण आस्रवका कारण है । वह भी जीवित शरीरके अनुसार है । जीवित शरीरसे ही उपदेश दिया जाता है, प्रवचन किया जाता है, शास्त्र लिखा जाता है, प्रवचन सुना जाता है !
आपने जो अपने कथन की पुष्टिमें श्री पं० बनारसीदास जीके नाटक समयसार कलश तथा परमात्मप्रकाशके पद्योंका अवतरण दिया है। उनका आशय तो केवल इतना है कि मिध्यादृष्टि मात्र अपनी शारीरिक क्रियासे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। फिर भी बहिरात्माका शरीर द्वारा बालतपसे स्वर्गगमन होता ही है। तथा असत् शारीरिक क्रियाओं द्वारा संसारभ्रमण होता है। जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है । ( त० सू० ६-२० )
वचवृषभनाराच संहननवाले जीवित शरीरसे शुक्लध्यान होकर मुषित होती है, उसी संहननवाले शरीरसे तीतम पापमयी क्रिया द्वारा सातवां नरक भी मिलता है ।