Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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प्रथम दौर
शंका २ जीवित शरीरका क्रिया आरमाम धर्म अप होता है या नहीं ?
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समाधान जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल द्रश्यको पर्याय होने के कारण उसका अजीय तत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्मभाव है और न अधर्मभाष ही है। मात्र जीवित शरीरकी क्रिया धर्म नहीं है इसे स्पष्ट करते हुए नाटक समयसारमें पण्डितप्रवर बमारसीदासजी कहते हैं
जे व्यवहारी मूढ़ नर पर्यायबुद्धि जीव ! तिनके बाह्य क्रिया ही को है अवलंब सदीच ।।१२१॥ कमति बाहिज दष्टि सो बाहिज क्रिया करत । माने मोक्ष परंपरा मनमें हरष धरंत ॥१२२॥ शदातम अनुभव कथा कहे समकिती कोय।
सो सुनिके तासों कहें यह शिवपंथ न होय ॥१२३।। इस तथ्यका समर्थन आचार्यचर्य अमृतचन्द्र के इस कलवासे होता है
व्यवहार विमूढदृष्टमः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः ।
तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तन्दुलम् ॥२४२॥ इस कलशका अर्थ पूर्वोक्त दोहोंसे स्पष्ट है । इसी विषयपर विशेष प्रकावा डालते हुए परमात्मप्रकाशमें भी कहा है
घोर करंतु वि सव-चरणु सयल वि सत्थ मुणंतु ।
परमसमाहिविबज्जियस ण वि देवखइ सिउ संतु ॥२-१९१॥ अर्थ-जो घोर तपश्चरण करता है और सकल शास्त्रका भी मनन करता है, परन्तु परम समाधिसे रहित है वह राग, द्वेप और मोह आदि दोषोंसे रहित मोक्षको प्राप्त नहीं होता ।।२-१९१।।
फिर भी जीवित शरीरकी क्रियाका धर्म-अधर्मके साथ नोकर्मरूपसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण जीवके शुभ, अशुभ और शुद्ध जो भी परिणाम होते हैं उनको लक्ष्यमें लेते हुए उपचार नयका आश्रय कर जीवित शरीरकी नियासे धर्म अधर्म होता है यह कहा जाता है ।