Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
होकर अपने में अपने लिए अपनी पिछली पर्यायका अपादान करके अपने द्वारा अपनी पर्यायरूपको आप उत्पन्न करता है। इसमें परका अणुमात्र भी योगदान नहीं होता। हाँ, असद्भूत व्यवहारनपसे परसापेक्ष कार्य होता है यह कहना अन्य बात है। किन्तु इस कथनको परमार्थभूप्त नहीं जानना चाहिए । यही कारण है कि समयसारमें सर्वत्र व्यवहार पक्षको उपस्थितकर निश्चयनयके कथन द्वारा असत् कहकर उसका निषेध कर दिया गया है। कार्यकारणभावमें भी इसी पद्धतिको अपनाया गया है।
अपर पक्षने प्रवचनसार गाथा १६९ की उक्त टोकाके आधारसे यह चर्चा चलाई है। उसमें 'पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति' यह वाक्प आया है, जिसका अर्थ होगा-'पुद्गलस्कन्ध स्वयं ही कर्मरूपसे परिणमते हैं।' जैसा कि अपर पक्षका कहना है उसके अनुसार यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि--'पुद्गलस्कन्ध अपनेरूप कर्मरूपसे परिणमते हैं ।' क्योंकि ऐसा अर्थ करने पर 'अपने रूप' तथा 'कर्मरूपसे' इन दोनों वचनोंमें एक वचन पुनरुक्त हो जाता है।
अपर पक्षने इसी प्रसंगमें समयसार ११६ से १२० तककी गाथाएँ उपस्थित कर इन गाषाओंकी अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न होने के कारण सर्व प्रथम यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि आचार्य कुन्दकुन्द इन गाथानों द्वारा परिणामस्वभावकी सिद्धि कर रहे हैं, अपने आप ( स्वतःसिद्ध ) परिणाम स्वभावकी सिद्धि नहीं कर रहे है। किन्तु अपर पक्ष इस घातको मूल जाता है कि जिसका जो स्वभाव होता है वह उसका स्वरूप होनेसे स्वतःसिद्ध होता है. इसलिए आचार्य अमुवचन्द्रने उक्त गाधाओंकी अबतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न देकर प्रत्येक द्रव्यको स्वतःसिद्ध स्वरूपस्थितिका ही निर्देश किया है । अतएव उक्त अवतरणिकाके आधारसे अपर पक्षने जो यह लिखा है कि 'उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तुके परिणामस्वभावकी सिद्धि करना ही आचार्यको अभीष्ट रही है अपने आप परिणामस्वभावकी नहीं।' वह युक्त प्रतीत नहीं होता।
इसी प्रसंगम दुसरी आपत्ति उपस्थित करते हुए अपर पक्षने लिखा है कि 'गाथा ११७ के उत्तरार्ध में • जो संसारके अभावकी अथवा सांस्यमतको प्रसक्तिरूप आपसि उपस्थित की है वह पुद्गलको परिणामी स्वभाव न मानने पर ही उपस्थित हो सकती है अपने आप (स्थतःसिद्ध) परिणामी स्वभावके अभावमें नहीं।' आदि । किन्तु यह आपत्ति इसलिए ठीक नहीं; क्योंकि प्रत्येक द्रव्यको परतः परिणामस्वभावी मान लेनेपर एक तो यह द्रव्यका स्वभाष नहीं ठहरेगा और ऐगी अवस्थामें द्रव्यका ही अभाव मानना पड़ेगा। दूसरे यह जीव पुद्गल कर्मसे सदा ही बढ़ बना रहेगा, अतएव मुक्ति के लिए यह बात्मा स्वतन्त्ररूपसे प्रयत्न भी न कर सकेगा। मदि अपर पक्ष इस आपत्तिको उपस्थित करते समय गाथा ११६ के पूर्वार्धपर दृष्टिपात कर लेता तो उसके द्वारा यह आपसि ही उपस्थित न की गई होती। पुद्गल अपने परिणाम स्वभावके कारण आप स्वतन्त्र कर्ता होकर जीवके साथ बञ्ज है और आप मुक्त होता है, इसीसे बच दशामें जीवका संसार मना हुआ है। यदि ऐसा न माना जाय और पुद्गलको स्वभावसे अपरिणामी माना जाय तो एक तो संसारका अभाव प्राप्त होता है, दुसरे सांख्यमतका प्रसंग आता है यह उक्त गाथाओंका तात्पर्य है, न कि यह जिसे अपर पक्ष फलित कर रहा है । स्पष्ट है कि यह दूसरी आपत्ति भी प्रकृतमें अपर पक्षके इष्टार्थकी सिद्धि नहीं करती । आचार्य अमृतचन्द्रने इस विषयको विशदरूपसे स्पष्ट करते हुए लिखा है
अथ जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणमयति ततो न संसाराभावः इति तकः ? कि स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणम