Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
७३ ___ इह हि व्यवहारमयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्धबन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कापासिकवासस इवोपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परस्य विदधाति ।
यहाँ व्ययहारनय पर्यायाश्रित होनेसे कुसुम्दी रंगसे रंगे हुए तथा सफेद रूईसे बने हुए वस्त्रके औपाघिक भावकी भांति पुद्गलके संयोगवश अनादिकालसे जिसकी बन्ध पर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जोधके औपाधिक भावका अवलम्बन लेकर प्रवतमान होता हुआ दूसरके कहता है।
पण्डितप्रवर टोडरमलजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशक अध्याय ७ के अनेक स्थलोपर निश्चय-व्यवहारके विषयमें इसी कारण यह लिखा है
यहाँ जिन आगम विर्षे निश्चय-व्यवहाररूप वर्णन है । तिनविर्ष यथार्थका नाम निश्चय है, उपचारका नाम व्यवहार है । (पृ० २८७)
एक ही व्यके भावको तिस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है। उपचारकरि तिस द्रव्यके भावकों अन्य द्रव्यके भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। (पृ. ३६९)
इस प्रकार इतने विवेचन द्वारा यह सुगमतासे समझमें आ जाता है कि समयसारकी उक्त गाथाओं द्वारा पुद्गल द्रक्ष्यके स्वतःसिद्ध परिणामस्वभावका ही कथन किया गया है। जब कि पुद्गलद्रव्य परकी अपेक्षा किये बिना स्वरूपसे स्वयं परिणामीस्वभाव है ऐसी अवस्थामें वह परसापेक्ष परिणामीस्वभाव है इसका निषेध ही होता है, समर्थन नहीं यह बात इतनी स्पष्ट है जितना कि सूर्यका प्रकाथ ।
___ अपर पक्षका कहना है कि यदि इन गाथाओंमें 'स्वयं' शब्दका अर्थ 'अपने आप' ग्राह्य माना जायगा तो माथा ११७ के पूर्वार्ध में भी स्वयं' शब्दके पाठकी आवश्यकता अनिवार्य हो जायगी। ऐसी हालतमें उसमें आचार्य कुन्दकुन्द 'स्वयं' शब्दके पाठ करनेकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे।'
___ इसका समाधान यह है कि एक तो गाथा ११६ और गाथा ११८ में आये हुए 'स्वयं' पदकी अनुवृत्ति हो जानेसे माथा ११७ के अर्थकी संगति बैट जाती है, इसलिए अपर पक्षने गाथा ११७ के पूर्वार्धमें 'स्वयं' पदको न देखकर जो आपत्ति उपस्थित की है वह ठीक नहीं । दूसरे समयसारकी इस गाथाको गाथा १२२ के प्रकाशमें पढ़नेपर यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि इस गाथामें आचार्यको 'स्वर्ग' पद इष्ट है । गाथा १२२ में वही बात कही गयी है जिसका निर्देश गाथा ११७ में आचार्यने किया है । अन्तर केवल इतना ही है कि गाथा १२२ में जीवको विवक्षित कर उक्त विषयका विवेचन किया गया है और गाथा ११७ में पुद्गलको विवक्षित कर उक्त विषयका विवेचन किया गया है। अभिप्रायको वृष्टिसे दोनोंका प्रतिपाद्य विषम एक ही है । अतः गाथा ११७ के पूर्वार्धम 'स्वयं' पदको न देखकर अपर पक्षने जो उक्त सभी गाथाओं में 'स्वयं' पदके 'अपने माप' 'स्वयं ही' अर्थ फरनेमें आपत्ति उपस्थित की है वह ठीक नहीं।
इस प्रकार उक्त विवेचनसे एकमात्र यही सिद्ध होता है कि पुद्गल स्वयं परिणामी स्वभाव है और साथ ही उक्त विवेचनसे यह अभिप्राय सूतरां फलित हो जाता है कि अपर पक्षने अपने तर्कों के आधारपर उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है वह ठीक नहीं है । वैसे तो यहाँपर उक्त, गाथाओंका अर्थ देनेकी आवश्यकता नहीं थी। किन्तु अपर पक्षने जब उनका अपनी मतिसे कल्पित अर्थ अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकामें दिया है, ऐसी अवस्थामें यहाँ सही अर्थ दे देना आवश्यक है । वह इस प्रकार है
__ यदि यह पुद्गल द्रव्य जीवमें स्वयं नहीं बँधा और कर्मभावसे स्वयं नहीं परिणमता तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है। ऐसी अवस्थामें कर्मवर्गणाओंके कर्मरूपसे स्वयं नहीं परिणमनेपर संसारका अभाव प्राप्त होता