Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
नहीं बनाता तब तक मध्य कालमें कपड़े में कौन सी ऐसी उपादान योग्यताका अभाव बना हुआ है जिसके बिना कपड़ा कोट नहीं बनता । समाधान यह है कि जिस अव्यवहित पूर्व पर्यायके बाद कपड़ा कोट पर्यायको उत्पन्न करता है वह पर्याय जब उस कपड़ेमें उत्पन्न हो जाती है तब उसके बाद ही वह कपड़ा कोट पर्यायरूपसे परिणत होता है। इसके पूर्व उम्र कपड़ेको कोटका उपादान कहना प्रध्याधिक नयका वक्तव्य है ।
अपर पक्ष कोट पहनने की आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिकी इच्छा और दर्जीको इच्छाके आधारपर कोटका कपड़ा कब कोट बन सका यह निर्णय करके कोट कार्य में बाह्य सामग्री के साम्राज्यको भले ही घोषणा करे | किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । अपर पक्ष के उक्त कथनको उलटकर हम यह भी कह सकते है कि कोट पहनने की आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिने बाजारसे कोटका कपड़ा खरीदा और बड़ी उत्सुकता पूर्वक यह उसे दर्जीके पास ले भी गया किन्तु अभी उस कपड़े कोट पर्यायरूपसे परिणत होनेका स्वकाल नहीं आया था, इसलिए उसे देखते ही दर्जीकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और अब उस कपड़े की कोट पर्याय सन्निहित हो गई तो दर्जी, मशीन आदि भी उसको उत्पत्ति में निमित्त हो गये ।
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अपर पक्ष यदि इस तथ्य को समझ ले कि केवल द्रव्यशक्ति जैन दर्शन में कार्यकारी नहीं मानी गई है, क्योंकि वह अकेली पाई नहीं जाती और न केवल पर्याय शक्ति हो जैन दर्शनमें कार्यकारी मानी गई है, क्योंकि वह भी अकेली पाई नहीं जाती । अतएव प्रतिविशिष्ट पर्याय शक्ति युक्त असाधारण द्रव्यशक्ति ही जैनदर्शन में कार्यकारी मानी गई है। तो कपड़ा कन कोट बने यह भी उसे समझ में आ जाय । और इस बातके समझमें आने पर उसके विशिष्ट कालका भी निर्णय जाय । प्रत्येक कार्य स्वकालमें हो होता है । हरिवंशपुराण सर्ग ५२ में लिखा है
चतुरंगबलं कालः पुत्रा मित्राणि पौरुषम् । कार्यकृत्तावदेवात्र यावद्दैवबलं परम् ॥७१॥ देवे तु विकले काल- पौरुषादिनिरर्थकः इति यत्कथ्यते विद्भिस्तत्तथ्यमिति नान्यथा ॥७२॥
जब तक उत्कृष्ट दैवबल है तभी तक चतुरंग बल, काल, पुत्र, मित्र और पौरुष कार्यकारी हैं। देवके विकल होने पर काल और पीरुष आदि सब निरर्थक हैं ऐसा जो विद्वत्पुरुष कहते हैं वह यथार्थ हैं, अन्यथा नहीं है ।।७१-७२ ।।
यह आगम प्रमाण है । इससे जहाँ प्रत्येक कार्यके विशिष्ट कालका ज्ञान होता है वहाँ उससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि देव अर्थात् द्रव्य में कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके सद्भाव में हो बाह्य सामग्रीको उपयोगिता है, अन्यथा नहीं ।
यहाँ पर हमने 'देव' पदका अर्थ 'कार्यकारी मन्तरंग योग्यता' आप्तमीमांसा कारिका ८८ की अष्टशती टीका के आधार पर ही किया है। भट्टाकलंकदेव 'देव' पदका अर्थ करते हुए वहाँ पर लिखते हैंयोग्यता कर्म पूर्व वा देवमुभयमदृष्टम् । पौरुषं पुनरिचेष्टितं दृष्टम् ।
योग्यता और पूर्व कर्म इनको देव संज्ञा है । ये दोनों अदृष्ट हैं । किन्तु इचेष्टितका नाम पौरुष है जो दृष्ट हैं ।
आचार्य समन्तभद्रने कार्य में इन दोनों के गौण-मुख्यभावसे ही अनेकान्तका निर्देश किया है। इससे