Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
६८
जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
आधारपर हमारा यह अर्थ फलित किया है यह हम नहीं समझ सके । हमने भट्टाकलंकदेवकी अष्टशतीके 'तादृशी जायते बुद्धि:' इस वचनको प्रमाणरूपमें अवश्य ही उद्धृत किया है और वह निर्विवादरूपसे प्रमाण है। पर उससे भी उक्त आशय सूचित नहीं होता। निमित्तोंको जुटाने की बात अपर पक्ष की ओरसे ही यथार्थ मानी जाती है। उसकी ओरसे इस आवश्यका कथन ५वीं शंकाके तीसरे दौर में किया भी गया है । हम तो ऐसे कथनको केवल विकल्पका परिणाम ही मानते हैं । अतएव इरा बातको लेकर अपर पक्षने यहाँ पर 'द्रव्यगतस्वभावः' पदकी जो भी विवेचना की है वह युक्त नहीं है । किन्तु उसका आशय इतना ही है कि जिसे आगम में स्वप्रत्यय परिणाम ( स्वभाव पर्याय ) कहा है और जिसे आगम में स्व-पर प्रत्यय ( विभाष पर्याय ) कहा है वह सब बाह्य आभ्यन्तर उपाधिको समग्रतामें होता है ऐसा द्रव्यगत स्वभाव है । जागे अपर पक्षने हमारे कथनको उद्धृतकर मोक्षको स्व-परप्रत्यय सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। किन्तु आगममें इसे किस रूपमें स्वीकार किया गया है इसके विस्तृत विवेचन में तत्काल न पड़कर उसकी पुष्टिमें एक आगमप्रमाण दे देना उचित समझते हैं। पंचास्तिकाय गाथा ३६ को आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका में लिखा है
fear हि उभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमुत्पादयन्नान्यत्किचिदुत्पादयनि ।
उभय कर्मका क्षय होनेपर सिद्ध स्वयं आत्मा ( सिद्ध पर्याय ) को उत्पन्न करते हुए अन्य किसीको उत्पन्न नहीं करते |
इससे स्वप्रत्यय पर्याय और स्व-परप्रत्यय पर्यायके कथनमें अन्तर्निहित रहस्यका स्पष्ट ज्ञान हो जाता हूँ । किन्तु अपर पक्ष इन दोनोंको एक कोटिमें रखकर उक्त रहस्यको दृष्टिपथमें नहीं ले रहा है इतना ही हम यहाँ कहना चाहेंगे ।
हमने पंचास्तिकायका अनन्तर पूर्व ही वचन उद्धृत किया है। उसका जो आशय है वही आशय तत्वार्थ सूत्र के 'बन्धहेत्वभाव-' इत्यादि वचनका भी है।
यहाँ अपर पक्षने करणानुयोग और चरणानुयोगकी चर्चाकर जो निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्रके एक साथ होने का संकेत किया है सो उसका हमारी ओरसे कहाँ निषेध किया गया है। हमारा कहना तो इतना ही है कि निश्चयचारित्र के साथ होनेवाला पंच महाव्रतादिरूप परिणाम व्यवहारचारित्र संज्ञाको प्राप्त होता है । अन्यथा मोक्षमार्ग की दृष्टिसे वह निष्फल है। साथ ही पंच महाव्रतादिरूप परिणाम उसी अवस्थामै निश्चयचारित्रका कारण अर्थात् व्यवहारहेतु कहा जाता है जब कि निश्चयचारित्रसे वह अनुप्राणित होता रहे । स्वभावके आलम्बन द्वारा अन्तर्मुख होनेसे आत्मामें जो निश्चयचारित्ररूप शुद्धि उत्पन्न होती है उसका मूल हेतु तो आत्माका आत्मस्वभावके सन्मुख होना ही है। अबुद्धिपूर्वक या बुद्धिपूर्वक संज्वलन परिणाम मात्र उसके अस्तित्वका विरोधी नहीं, इसलिए व्यवहारचारित्र संज्ञक वह व्यवहार नयसे निन्दयचारिका साधक कहा गया है। एसद्विषयक आगममें जितने वचन मिलते हैं उनका एकमात्र यही आशव है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार कलश में कहा भी है-
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरेर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः, क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ॥१४२॥