Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका है और उसका समाधान या निमित्त कर्ताको सहकारी कारण या सहकारी कत्त के रूपमें सार्थक (उपयोगी) मानता है यहाँ आपका पक्ष उसे उपचरित कह कर उक्त कार्यमें अकिचिस्कर अर्थात् निरर्थक ( निरुपयोगी ) मानता है और तब आपका पक्ष अपना यह सिद्धान्त निश्चित कर लेता है कि कार्य केवल उपादानको अपनी सामन्यसे स्वतः ही निष्पन्न हो जाता है। उसकी निष्पत्ति में निमित्तकी कुछ भी अपेक्षा नहीं रह जाती है। जब कि हमारा पक्ष यह घोषणा करता है कि अनुभव, तर्क और आगम सभी प्रमाणोंम यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कार्यकी निष्पत्ति उपादानमें ही हुआ करती है अर्थात् उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है फिर भी उपादानकी उस कार्यरूप परिणतिमें निमित्त की अपेक्षा बराबर बनी हुई है अर्थात् उपादानकी जो परिणति आगममें स्व-परप्रत्यय स्वीकार की गई है वह परिणति उपादानकी अपनी परिणति होकर भी निमित्त की सहायतासे ही हुआ करती है, अपने आप नहीं हो जाया करती है। चूंकि आत्माके रागादिरूप परिणमन और चतुर्गति भ्रमणको उसका (आत्माका) स्वपरप्रत्यय परिणमन आगम द्वारा प्रतिपादित किया गया है, अतः वह परिणमन आत्माका अपना परिणमन होकर भी लोके उता"
हाग रता है। यादि । ___ यह अपर पक्षके वक्तव्यका अंश है। इसमें उन सब बातोंका उल्लेख हो गया है जिन्हें अपर पक्ष सिद्ध करनेवे प्रयत्नमें हैं । आगे इसे ध्यानमें रखकर पूरे वक्तव्यापर विचार किया जाता है
यह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक अखण्ड सत्को भेद विचक्षामें तीन भागों में विभक्त किया गया है-द्रव्यगत्, गुणसत् और पर्यायसत् । अपर पक्ष व्यसत् और गुणसत्कं स्वरूपको तो स्वतः सिद्ध मानने के लिए तैयार है, किन्तु पर्यायसत्के विषयमें उसका कहना है कि वह परको सहायतासे अर्थात् परके द्वारा उत्पन्न होता है। उगादान तो स्व है और अभेद विपक्ष में जो उपादान है वही उपादेय है, इसलिए वह अपनेसे, अपनेमें, अपने द्वारा आप फर्ता होकर कर्मरूपसे उत्पन्न हुआ यह कथन यथार्थ बन जाता है । किन्तु जिस बाह्य सामग्रीमें निमिस व्यवहार किया गया है वह ( वह स्वयं परके कार्यका स्वरूपसे निमित्तकारण नहीं है यह बात यहाँ ध्यानमें रखनी चाहिए। ) पर है, अतः उसमें यह कार्य हुआ इसे तो यथार्थ न माना जाय और उसके द्वारा आप कर्ता होकर परके इस कार्यको उसने उत्पन्न किया इसे यथार्थ कैसे गाना जा सकता है, अर्थात् त्रिकालमें यथार्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि दोनोंमें सर्वथा सत्ताभेद है, प्रदेशभेद हैं, कर्ता आदिका सर्वथा भेद तो है हो । परफे द्वारा कार्य हुआ था परफी सहायतासे कार्य हुआ इसे आगम प्रमाणसे यदि हम असद्भुत व्यवहार कथन या उपचरित कथन बतलाते हैं तो अपर पक्ष उसे निरर्थक या निरुपयोगी लिखने में ही अपनी चरितार्थता समझता है, इसका हमें आश्चर्य है। जहाँ उपादान
और उपादेयमें भेद विवक्षा करके उपादानसे उपादेयकी उत्पत्ति हुई यह कथन ही व्यवहार कथन ठहरता है वहां परके द्वारा उससे सईथा भिन्न परके कार्यकी उत्पत्ति होती है से असद्भत व्यवहार कथन न मानकर सद्भुत व्यवहार या निश्चय कथन कैसे माना जा सकता है, इसका स्वमतके समर्थनका पक्ष छोड़कर अपर पक्ष ही विचार करे। क्या यह अपर पक्ष आगममें बतला सकता है कि एक द्रव्यके कार्यके कर्ता आदि कारण धर्म दूसरे द्वन्ध्यमें वास्तव में पाये जाते है ? यदि नहीं तो वह पक्ष कुम्भकार घटका कर्ता है इस कथन को असद्भूतव्यवहारमय । उपचरित्तोपचारलय) का कथन मानने में क्यों हिचकिचाता है : पहले तो उसे इस तथ्यको निःसंकोच रूपमें स्वीकार कर लेना चाहिये और फिर इसके बाद इसकी सार्थकता या उपयोगिता क्या है इस पर विचार करना चाहिये । हमें आशा है कि यदि वह इस पञ्चतिसे विचार करेगा तो उसे इस कथनकी सार्थकता और उपयोगिता भी समझ में आ जायगी। यह कथन इष्टार्थ