Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यही कारण है कि 'मुख्याभावे' इत्यादि घचनके बाद उस उपचारको कहीं अधिनाभाव सम्बन्धरूप, कहीं संश्लेषसम्बन्धरूप और कहीं परिणामपरिणामिसम्बन्ध आदि रूप बतलाया गया है।
इसलिए आलापपद्धतिके उक्त वाक्यको ध्यानमें रखकर अपर पक्षने उसके आधारसे यहाँ जो कुछ मी लिखा है वह ठीक नहीं, यह तात्पर्य हमारे उक्त विवेचनसे सुतरां फलित हो जाता है।
अपर पक्षने इसी प्रसंगमें उपादान पदको निरुक्ति तथा व्याकरणसे सिद्धि करते हुए लिखा है कि 'जो परिणमनको स्वीकार करे, ग्रहण करे वा जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते हैं । इस तरह उपादान कार्यका आश्रय ठहरता है।' तथा निमित्त पदको निरुक्ति और रुयाकरणसे सिद्धि करते हुए उसके विषयमें लिखा है कि 'जो मित्रके समान उपादानका स्नेहन करे अर्थात् उसकी कार्यपरिणतिमें जो मित्रके समान सहयोगी हो वह निमित्त कहलाता है।'
उपादान और निमित्तके विषयमें यह अपर पक्षका बक्तव्य है। इससे विदित होता है कि अपर पक्ष उपादानको मात्र प्राथय कारण मानता है और निमित्तको सहयोगी। अतएव प्रश्न होता है कि कार्यका कर्ता कौन होता है ? अपर पक्ष अपने उक्त कथन द्वारा कार्यको उपादानका तो स्वीकार कर लेता है इसमें सन्देह नहीं, अन्यथा वह उपादानके लिए 'उसको कार्यपरिणतिमें' ऐसे शब्दोंका प्रयोग नहीं करता। परन्तु वह उपादानको कार्यका मुरुष (वास्तविक) कर्ता नही मानना चाहता इसका हमें आश्चर्य है । समयसार कलशमें यदि जीव पुद्गलकमको नहीं करता है तो कौन करता है ऐसा प्रश्न उठा कर उसका समाधान करते हुए लिखा है कि यदि तुम अपना तीन मोह (अज्ञान) दूर करना चाहते हो तो कान खोलकर सुनो कि वास्तव में पुद्गल ही अपने कार्यका कर्ता है, जीव नहीं। समयसार कलशका यह वचन इस प्रकार है
जीवः करोति यदि पुद्गलफर्म नंव कस्तहि तत्कुरुत इत्यभिशंकयव ।
एर्ताह तीव्ररयमोहनिबर्हणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्म कर्तृ ॥६३।।
अपर पक्ष जब कि कार्यके प्रति व्यवहार कर्ता या व्यवहार हेत आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त हए बाह्य पदार्थको उपचार कर्ता या उपचारहेतु स्वीकार कर लेता है, ऐसी अवस्थामें उसे आगममें किये गये 'उपचार' पदके अर्थको ध्यानमें रखकर इस कथानको अवास्तविक मान लेनेमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए । इससे उपादानकर्ता वास्तविक है, यह सुतरां फलित हो जाता है । बाह्य सामग्रीमें निमित्त व्यवहारको लक्ष्यमें रखकर उपचार का या उपचार हेतुका आगममें कथन क्यों किया गया है इसका प्रयोजन है और इस प्रयोजनको लक्ष्य में रख कर यह कथन व्यर्थ न होकर सार्थक और उपयोगी भी है। किन्तु इस आधारपर अपर पक्ष द्वारा उस कयनको ही वास्तविक टहराना किसी भी अवस्थामें उचित या परमार्थभूत नहीं कहा जा सकता।
अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में आगमके जो तीन उदाहरण उपस्थित किये है उनमेंसे अष्टसहनी १० १५० का उदाहरण निश्चय उपादानके साथ बाह्य सामग्रीकी मात्र कालप्रत्यासत्तिको सचित करता है। देवामम कारिका ९९ से मात्र इतना ही सूचित होता है कि यह जीव अपने रागादि भावोंको मुख्य कर जैसा कर्मबन्ध करता है उसके अनुसार उसे फलका भागी होना पड़ता है। फलभोगमें कर्म तो निमित्तमात्र है, उसका मुख्य कर्ता तो स्वयं जीव ही है। अपर पक्ष ने इस कारिकाके उत्तरार्ध को छोड़कर उसे आगम प्रमाणके रूपमें उपस्थित क्रिया है। इससे कर्म और जीवके रामादि भावों में