Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
जान लेना चाहिए । वचनमें परनुमानका उपचार क्यों किया जाता है इसका खुलासा भी इससे हो जाता है और इस उदाहरणसे यही ज्ञात होता है कि कुम्भकार वास्तवमें घटोत्पत्तिका हेतु नहीं है।
अपर पक्षने अपने प्रकृत विवेचनमें सबसे बड़ी भूल तो यह की है कि उसने बाह्य सामग्रीको स्वरूपसे अन्यके कार्यका निमित स्वीकार करके अपना पक्ष उपस्थित किया है । किन्तु उस पक्षकी ओरसे ऐसा लिखा जाना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त कथनको वास्तविक मानने पर अन्य उदयके कार्यका कारणधर्म दूसरे द्रव्यम वास्तवमें रहता है यह स्वीकार करना पड़ता है और ऐसा स्वीकार करने पर दो द्रव्योंमें एकताका प्रसंग उपस्थित होता है। अतएव अपर पक्षको प्रकृतमै यह स्वीकार करना चाहिए कि बाह्य सामग्रीको अन्यके कार्यका हेतु कहना यह प्रथम उपचार है और उस आधारसे उसे वही कहना या उसका कर्ता कहना यह दूसरा उपचार है । 'अन्नं व प्राणाः' यह वास्तव में उपचरितोपचारका उदाहरण है । सर्वप्रथम तो यहाँ व्यवहार (उपचार) नयसे अन्नमें प्राणोंकी निमित्तता स्वीकार की गई है और उसके बाद पुनः व्यवहार (उपचार) नयका आश्रय कर अन्न प्राण ही है ऐसा कहा गया है । यहाँ व्यवहार पद उपचारका पर्यायवाची है । अतएव आग में जहां भी एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यके कार्यका व्यवहारमयसे निमित्त कहा गया है वहाँ उसे उस कार्यका उपचारनयस निमित्त कहा गया है ऐसा समझना चाहिए ।
___ उपचार और व्यवहार ये एकार्थवाची है। इसके लिए देखो समयसार गाथा १०८ तथा उसको आत्मख्याति टीका। समयसारको उक्त गाथामें 'बबहारा' पद आया है और उसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने उसके स्थानमें 'उपचार' पदका प्रयोग किया है । समयसार गाथा १०६ और १०७ तथा उनकी आत्मख्याति टीकामें भी यही बात कही गई है। इतना ही क्यों, इसी अर्थको बतलाने के लिए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने गाथा १०५ में 'उपचारमात्र' पदका प्रयोग किया है । स्पष्ट है कि आगममें जहाँ जहाँ व्यवहारसे निमित्त है, हेतु है या कारण है ऐसा कहा गया है वहाँ वह कथन उपचारसे किया गया है ऐसा समझना चाहिए ।
तत्त्वार्थवार्तिक अ० ५ ० १२ से भी यही तथ्य फलित होता है । यहाँ भट्टाकलंकदेवने जब 'सब द्रव्य परमार्थसे स्वप्रतिष्ठ है' इस वचनको स्वीकृति दी तब यह प्रश्न उठा कि ऐसा मानने पर तो अन्योन्य आघारके श्याघातका प्रसंग उपस्थित होता है। इसी प्रश्नका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि एक को दुसरेका आधार बतलाना यह व्यवहारनयका वक्तव्य है, परमार्थसे तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही है। यदि कोई शंका करे कि यहाँ परमार्थका अर्थ द्रश्यार्थिक है तो यह बात भी नहीं है | किन्तु यहाँ परमार्थ पदका अर्थ पर्यायाधिक निश्चयरूप एवम्भूतनय ही लिया गया है। इस प्रकार इस विवेचनसे भी यही ज्ञात होता है कि समयसारमें जिस प्रकार व्यवहार पद उपचारके अर्थमें प्रमुक्त हुआ है उसी प्रकार अन्य आचार्योंने भी इस (व्यवहार) पदका उपचारके अर्थ में ही प्रयोग किया है ।
यह तथ्य है । इस तथ्यको ध्यान में रखकर आलापपद्धतिके 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते ।' इस पदका असद्भूत व्यवहारनयसे यह अर्थ फलित होता है कि यदि मुख्य (यथार्थ) प्रयोजन और निमित्त (कारण) का अभाव हो अर्थात् अधिवक्षा हो तथा असद्भूत व्यवहार प्रयोजन और असद्भूत व्यवहार निमित्त की विवक्षा हो तो उपचार प्रवृत्त होता है।
तथा अखण्ड द्रव्यमें भेदविवक्षा वश इसका यह अर्थ होगा कि मुख्य अर्थात् म्याथिक नयका विषयभूत यथार्य प्रयोजन और यथार्थ निमित्त का अभाव हो अर्थात् अविवक्षा हो तथा सद्भूत व्यवहाररूप प्रयोजन और सद्भूत श्यघहाररूप निमित्तकी विवक्षा हो तो उपचार प्रवृप्त होता है।