Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अगर पक्षने 'यः परिणमति स कर्ता' इत्यादि कलशको उद्धृत कर 'यः परिणमति' पदका अर्थ किया है-'जो परिणमित होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है।' जब कि इस पदका वास्तविक अर्थ है- 'जो परिणमता है या परिणमन करता है। उक्त पवमें 'यः परिणमति' पद है 'यत्परिणमन भवति' पद नहीं इं, सिर नहीं गाय, पा, उसने रा एके अर्थको न करके स्वमतिसे अन्यथा अर्थ क्यों किया। स्पष्ट है कि वह पक्ष उपादानको यथार्थ कर्ता बनाये रखने में अपने पक्षकी हानि समझता है तभी तो उस पक्षके द्वारा इस प्रकारसे अर्थमें परिवर्तन किया गया।
आगममें निमित्त व्यवहार या निमित्तका आदि व्यवहारको सूचित करनेवाले बचन पर्याप्त मात्राम उपलब्ध होते है इसमें सन्देह नहीं, पर उसी आगममें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि ये सब बचन असद्धृतव्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर आगममें निबद्ध किये गये हैं। (इसके लिये देखो समयसार गाथा १०५ से १०८ तथा उनकी आत्मख्याति टीका, बृहद्व्यसंग्रह गाथा ८ की टीका आदि ।)
___ यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार आगममें उपादानकर्ता और उपादान कारणके लक्षण उपलब्ध होते हैं और साथ ही उन्हें यथार्थ कहा गया है उस प्रकार आगममें निमिसकर्ता या निमित्त कारणके न तो कहीं लक्षण ही उपलरूप होते हैं और न ही कहीं उन्हें यथार्थ ही कहा गया है । प्रत्युत ऐसे अर्थात् निमित्तकर्ता या निमित्तकारणपरक व्यवहारको अनेक स्थलोंपर अज्ञानियोंका अनादि रूढ़ लोकव्यवहार ही बतलाया गया है (देखो समयसार गाथा ८४ ब उसकी दोनों संस्कृत टीकाएँ आदि)।
अपर पक्षने हमारे कथनको लक्ष्य कर जो यह लिखा है कि 'परन्तु इस पर ध्यान न देते हुए उस लक्षणको सामान्यरूपसे कर्ताका लक्षण मानकर निमित्तन्नमिसिक भावकी अपेक्षा आगममें प्रतिपादित कर्तकर्म भावको उपचरित (कल्पनारोपित) मानते हुए आपके द्वारा निर्मितकर्ताको अकिंचित्कर (कार्यके प्रति निरुपयोगी) करार दिया जाना गलत ही है।'
किन्तु अपर पनकी हमारे कथनपर टिप्पणी करना इसलिए अनुचित है, क्योंकि परमागममें एक कार्यके दो कर्ता वास्तवमें स्वीकार ही नहीं किये गये है । समयसार कलशमें कहा भी है
मैकस्य हि कर्तारी द्वौ स्तोद्वे कर्मणी न चैकस्य ।
नेकस्य च किये द्वे एकमनेक यतो न स्यात् ॥५४|| एक द्रव्य (कार्य) के दो कर्ता नहीं होते, एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते और एक व्यकी दो क्रियाएँ महीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक इभ्यरूप नहीं होता ॥५४॥ . इससे स्पष्ट विदित होता है कि जब एक कार्यके परमात्ररूप दो कर्ता ही नहीं है, ऐसी अवस्थामें परमागममें दो कर्ताओंके दो लक्षण निबद्ध किया जाना किसी भी अवस्थामें सम्भव नहीं है, इसलिए प्रकृतमें मही समझना चाहिए कि 'यः परिणमति स कर्ता' इस रूपमें कर्ताका जो लक्षण निबद्ध किया गया है यह सामान्यरूपसे भी कर्ताका लक्षण है और विशेषरूपसे भी, क्योंकि जहाँ पर दो मा दोसे अधिक एक जातिकी वस्तुएं हों वहाँ पर ही सामान्य और विशेष ऐसा भेद करना सम्भव है । यहाँ जद एक कार्यका कर्ता ही एक है सो एफ कर्ताके दो लक्षण हो ही कैसे सकते हैं ? यही कारण है कि एक कार्यका एक कर्ता होनेसे परमागममें कर्ताका एक ही लक्षण लिपिबद्ध किया गया है । निमित्तफर्सा वास्तवमै कर्ता महीं, इसलिए परभागममें उसका लक्षण भी उपलब्ध नहीं होता । यह तो व्यवहारमात्र है। अतएव इस सम्बन्धमें हमारा जो कुछ भी कथन है वह यथार्थ है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।