Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चवला पु. १३ पृ० ३४९ का उद्धरण (जिसे अपर पक्षने प्रस्तुत किया है) संयोगको भूमिकामें उपचरित अनुभागका ही निरूपण करता है। प्रत्येक व्यका वास्तविक अनुभाग क्या है यह 'तत्य असेसदव्याचगमो जीवाणुभागो' इत्यादि वचनसे ही जाना जाता है।
अपर पक्षने 'मुख्याभावे सति' इत्यादि वचनको उपचारकी व्याख्या माना है जो अयुक्त है । इस वचन वारा सो मात्र उसकी प्रवृत्ति कहाँ होती है यह बतलाया गया है | उपचारको व्याख्या उसी आलापपद्धतिमें इस प्रकार दी है
अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एव उपचारः।
अन्यत्र प्रसिद्ध हुए धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भूत व्यवहार है । असद्भूत व्यवहार ही उपचार है।
अपर पक्षने उपचार कहाँ प्रवृत्त होता है इसके समर्थन में तीन उदाहरण दिये हैं, किन्तु उनका आशय क्या है इसे समझना है। एक उदाहरण बालकका है। बालप में यथार्थमें सिंहपना तो नहीं है । हाँ जिस प्रकार सिंहमें क्रौर्य-शौर्य गुण होता है, उसके समान जिस बालकमें यह गुण उपलब्ध होता है उस बालफमें सिंहका उपचार किया जाता है । यहाँ तत्सदृष्टा गुण उपचारका कारण है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि सिंहमे जो गुण है वहीं गण दालकमें तो नहीं है। फिर भी लाला को जो सिंह कहा गया है वह केवल तत्सदृशा गुणको देखकर ही कहा गया है । अतएव यह उपचार कथन ही है, वास्तविक नहीं । यह दृष्टान्त है अब इसे दार्टान्तपर लागू कीजिए।
प्रकृतमें कार्य-कारणभाषका विचार प्रस्तुत है। कार्य एक है और कारण दो-एक बाह्य सामग्री, जो अपने स्व चतुष्टय द्वारा कार्यक्रे स्वचतुष्टयको स्पर्श करने में सर्वथा असमर्थ है और दूसरी अन्तःसामग्री जी कार्यके अव्यवहित प्राव रूपस्वरूप है । ऐसी अवस्थामें इन दोनों कारणोंमें कार्यका वास्तविक कारण कौन ? दोनों या एक ? इसे यथार्थरूपमें समझने के लिए कारकोंके स्वरूपपर दृष्टिपात करना होगा। कारक दो प्रकारके हैं-एक निश्चय कारक और दूसरे व्यवहार कारक | निश्चय कारक जिस द्रव्यमें कार्य होता है । उससे अभिन्न होते हैं और व्यवहार कारके जिस द्रव्यमें कार्य होता है उससे भिन्न माने गये है । प्रत्येक द्रव्यमें अपना कार्य करने में समर्थ उससे अभिन्न छह कारक नियमसे होते है. इसको समझनेके लिए पंचास्तिकाम गाथा ६२ और उसको टोका देखने योग्य है । इसकी उत्यानिकाका निर्देश करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है
अत्र निश्चयनयेनाभिन्नकारकत्वाकर्मणो जीवस्य च स्वयं स्वरूपकतत्वमुक्तम् ।
निश्चयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म और जीव स्वयं स्वरूपके (अपने-अपने स्वरूपके) कर्ता है ऐसा यहाँ कहा है। आगममें जहाँ स्वरूप प्राप्तिका निवेश किया गया है यहाँ यही कहा गया है।
अयमात्मात्मनात्मानमात्मन्यात्मन आत्मने।
समादधानो हि परां विशुद्धि प्रतिपद्यते ॥ १-११३ ।।-अनगारधर्मामृत । स्वसंवेदनसे सुष्य क्स हुआ यह आत्मा स्वसंवेदनरूप अपने द्वारा शुद्ध चिदानन्दस्वरूप अपनी प्राप्तिके लिए इन्द्रिय ज्ञान और अन्तःकरण ज्ञानरूप अपनेसे भिन्न होकर निर्विकल्पस्यरूप अपनेमें शुद्ध चिदानन्दस्वरूप अपनेको ध्याता हुआ उत्कृष्ट विश विको प्राप्त होता है ।।१-११३।।