Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान इसके भावार्थ वे लिखते है-- .
दो वस्तु हैं ने सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेश भेदरूप ही हैं, दोनों एकरूप होकर नहीं परिणमती, एक परिणामको भी नहीं उपजातीं और एक क्रिया भी उनकी नहीं होती ऐसा नियम है । जो दो द्रव्य एकरूप हो परिणमैं तो सब द्रव्योंका लोप हो जाय ।।
यह वस्तुस्थिति है। इसके प्रकाशमें 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' । इस वचनका वास्तविक यही अर्थ फलित होता है कि संयोगरूप भूमिकाम एक द्रव्यके विकार परिणतिके करनेपर अन्य द्रष्य विवक्षिप्त पर्यायके द्वारा उसमें निमित्त होता है 1 इससे स्पष्ट विदित हो जाता है कि निश्चय व्यवहार दोनों नयवचनोंको स्वीकार कर 'यकृतो लोके विकारो भवेत' यह वचन लिखा गया है। स्पष्ट है कि मूल प्रश्नका उत्तर लिखते समय जो हम यह सिद्ध कर आये है कि 'संसारी आत्माके विकार भाव और चतुर्गति परिभ्रमणमें द्रव्यकर्मका जदय निमित्तमात्र है। उसका मुख्य कर्ता तो स्वयं आत्मा ही है। वह यथार्थ लिख आये हैं । पचनन्दिपंचविंशतिकाके उक्त वचनसे गी यही सिद्ध होता है।
अपर पक्षका कहना है कि 'यदि क्रोध आदि विकारी भावोंको कर्मोदय बिना मान लिया जावे तो उपयोगके समान ये भी जीवके स्वभाव हो जायेंगे और ऐसा मानने पर इन विकारी भावोंका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आजावेगा।' आदि,
समाधान यह है कि क्रोध आदि विकारी भावोंको जीव स्वयं करता है, इसलिए निश्चयनयसे वे परनिरपेक्ष ही होते हैं इसमें सन्देह नहों। कारण कि एक व्यके स्वचतुष्टयमें अन्य द्रव्यके स्वचतुष्टयका अत्यन्ताभाव है । इसी तगमो कष्टपल में रखार भी जाकण पु: :: पृ० ११७ में कहा है---
बज्झकारणणिरवेक्खो वत्थुपरिणामो। प्रत्येक वस्तुका परिणाम बाह्य कारण निरपेक्ष होता है ।
किन्तु जिस-जिस समय जीव क्रोधादि भावरूपसे परिणमता है उस-उस समय क्रोधादि द्रव्यकर्मके उदयकी नियमसे कालप्रत्यासत्ति होती है, इसलिए ब्यवहार नयसे क्रोधादि कषायके उदयको निमित्तकर क्रोधादि भाव हुए यह कहा जाता है । कारण दो प्रकारके हैं—बाह्य कारण और आम्यन्तर कारण । बाह्य कारणको उपचरित कारण कहा है और आभ्यन्तर कारणकी अनुपचारित कारण संज्ञा है । इन दोनोंकी समप्रतामें कार्यकी उत्पत्ति होनेका नियम है। अतएव न तो संसारका ही अभाव होता है और न ही मोक्षमें क्रोधादि भावोंकी उत्पत्तिका प्रसंग ही उपस्थित होता है।
क्रोधादि कर्मोको निमित्त किये बिना क्रोधादि भाव होते हैं ऐसा मारा कहना नहीं है और न ऐसा प्रागम ही है, । हमारा कहना यह है कि क्रोधादि विकारी भावोंको स्वयं स्वतन्त्र होकर जीव उत्पन्न करता है. क्रोधादि कर्म नहीं । आगमका भी यही अभिप्राय है । यदि ऐसा न माना जायगा तो न तो क्रोधादि भावोंका कभी अभाव होकर इस जीवको मुक्तिको ही प्राप्ति हो सझेगी और न ही दो द्रव्योंमें भिन्नता सिद्ध हो राकेगी । इसी तथाको ध्यान में रखकर तत्वानुशासन में यह बघन उपलब्ध होता है..
अभिन्नकर्तृ कर्मादिविषयो निश्चयो नयः ।
व्यवहारनयो भिन्नकतृ कर्मादिगोचरः ॥२९॥ जिस द्रव्यके उसी द्रव्यमें कर्ता और कर्म आदिको विपय करनेवाला निश्चयनय है तथा विविध द्रव्योंमें एक-दूसरेके कर्ता और कर्म आदिको बिषव करनेवाला व्यवहारनय है ।।२९।।