Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान कहे है । यद्यपि संमारी जीव परका सम्पर्क करने के फलस्वरून स्वयं सुखी दुखी तथा नरका-निगोद आदि गतियोंका पात्र होता है । पर यह कार्य जिनक सर कम होता है उनकी मिमितता दिखलाने के लिए ही यह कहा गया है कि आत्मा पंगके समान है। बा न आता है और न जाता है। विधि ही तीन लोकमें इरा जोवको ले जाता है और ले आता है । इत्यादि ।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि परमात्मप्रकाश दोहा ६६ में आया हुआ विधि शब्द जहाँ बापकर्मका.सूचक है वहाँ वह परमामाकी प्राप्तिके प्रतिपक्षभत भावकमको भी सूचित करता है। जब इस जीन्यकी दव्य-गर्यायस्वरूप जिस प्रकारको योग्यता होती है तब उसकी उसके अनुगार ही परिणति होती है और उसमें निमित्त होने योग्य बाह्य सामग्री भी उमौके अनका मिलती है ऐसा ही विकालाबाधित नियम है. इसमें कहीं अपवाद नहीं, तथा यदि परको लक्ष्यकर परिणमन होता है तो नियमसे विभाव परिणतिको उत्पत्ति होती है और स्वभावको लक्ष्यकर परिणमन होता है तो नियमसे स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति होती है। जोवके संसारी बने रहने और मुक्ति प्राप्त करने को यह चावी है। इसमें भी कहीं कोई अपवाद नहीं । यहाँ परके सम्पर्क करतंत्रा अभिप्राय ही परको लक्ष्यकर परिणमन करना लिया है। पर वस्तु विभाव परिणतिमें तभी निमित्त होती है जब यह जीन उसको लक्ष्यकर परिणमन करता है, अन्यथा समारी जीव कभी भी मुक्ति प्राप्त करनेका अधिकारी नहीं हो सकता। अतएव प्रकृतग वही समझना चाहिए कि जब विवक्षित ट्रव्य अपना कार्य करता है तब बाह्य मामग्री उसमें यथायोग्ब निमित होती है। परमात्मप्रकाशके उक्त कथनका यही अभिप्राय है। समयसार गाथा २७८ व २७२ रो भी यही सिद्ध होता है। उक्त गाथाओं में यद्यपि यह कहा गया है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि आप शुद्ध है, वह लालिमा आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है। किन्तु वह अन्य रक्त आदि द्रव्यों द्वारा लालिमारूप परिणमाया जाता है उसी प्रकार ज्ञानी आप शुद्ध है, वह राग आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता है। किन्तु बह रागादिरूप दोषों द्वारा रागो किया जाता है । परन्तु इस कथनका ठीक आशय क्या है इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्रने 'न जातु रागादि' इत्यादि कलश द्वारा किया है। इसमें पर पदार्थको निमित्त न बतलाकर परके संगमें निमित्तता सुचित की गई है । इससे स्पष्ट विदित होता है कि आगममें जहां-जहाँ इस प्रकारका कथन आता है कि जीवको कर्म सुख-दुख देते हैं, कम बड़े बलवान् है, वे हो इसे नरकादि दुर्गतियोंगे और देवादि सुगतियों में ले जाते हैं वहाँवहाँ उक्त कथनका यही अर्थ करना चाहिए कि जब तक यह जीव कर्मोदयकी संगति करता है तब तक इसे मंगार परिभ्रमणका पात्र होना पड़ता है। वर्गीय जीवके सुख-दूपत्रादिमें निमित्त है इसका आशय इतमा ही है । परमात्मप्रकाशमें इसी आगवको इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि यह जीव पंगु के समान है। वह न कहीं जाता है और न आता है, कर्म ही इसे तीन लोकमें ले जाता है और ले आता है आदि ।
आगममें दोनों प्रकारका कथन उपलब्ध होता है। कहीं उपाशनकी मुख्यतासे कथन किया गया है और कहीं निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य मामग्रीको मुख्यतासे कयन किया गया है । जहाँ उपादानकी मुख्यतासे कथन किया गया है वहाँ उसे निश्चर (वार्य) कथन जानना चाहिए और जहाँ निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री की मुख्यतास कथन किया गया है वहाँ उस असद्भुतम्यवहार (अपरित) कथन जानना चाहिए ।
श्री समयसार गाथा ३२ को टोका निमित्त व्यवहारके योग्य मोहादयको भावक और आत्माको भाव्य कहा गया है सो उसका आशष इतना ही है कि जब तक यह जाच मोहोदय के सम्पर्क में एकत्वबुद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदय भात्रक व्यवहार होता है और आत्मा भाव्य कहा जाता है। यदि ऐसा