Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका १ और उसका समाधान 'अतः कर्मके निमित्तसे जीवको विविध प्रकारको अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता आः ।
अब हमारे और अपर पक्षवे. उक्त उल्लेखके आधारगर जब अकालमरणका विचार करते हैं तो विदित होता है कि जब जब आत्मामें मनुष्यादि एक पर्यायके व्ययको और देवादिरूप दूसरी पर्यायके उत्पादको अन्तरंग योग्यता होती है तब तब विषभक्षण, गिरिपात आदिबाह्य सामग्री तथा मनुष्यादि आयु. का व्यय और देवादि आयुका उदय उसकी सूचक होती है और ऐसी अवस्थामें आत्मा स्वयं अपनी मनुष्यादि पर्यायका व्यय कर देवादि पर्यावरूपसे उत्पन्न होता है। स्पष्ट है कि एक पर्यायके व्यय और दूसरी पर्यायके उत्पादरूप उपादान योग्यताके कालकी अपेक्षा विचार करने पर मरण की कालमरण संज्ञा है और इसको गोणकर अन्य कर्म तथा नोकर्मरूप सूचक सामग्रीकी अपेक्षा विचार करने पर उसी मरणवी अकालमरण संज्ञा है।
यह वस्तुस्थिति है जो अपर पक्षके उक्त वक्तव्यसे भी फलित होती है। हमें आशा है कि अपर एश अपने वक्तव्य 'किन्तु चातिया कमोदयके साथ ऐसी बात नहीं है, वह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक है।' इस बच्चनको ध्यान में रखकर सर्वत्र कार्य-कारणभावका निर्णय करेगा।
४. प्रस्तुत प्रतिशंकामें उहिलखित अन्य उद्धरणोंका स्पष्टीकरण अब प्रस्तुत प्रतिशंकामें उद्धृत उन उल्लेखोंपर विचार करते है जिन्हें अपर पक्ष अपने पक्षके समर्थनमें समझता है । उनमेंसे प्रथम उल्लेख इष्टोपदेशका श्लोक ७ है । इसमें मोह अर्थात् मिथ्यादर्शनसे सम्पृक्त हुआ ज्ञान अपने स्वभावको नहीं प्राप्त करता है यह कहा गया है और उसकी पुष्टिमें 'मदनकोद्रवको निमित्त कर मत्त हुञा पुरुष पदार्थोंका ठीक-ठीक जान नहीं कर पाता।' यह दृष्टान्त दिया गया है।
दूसरा उल्लेख समयसार कलश ११० का तीसरा चरण है। इसमें बतलाया है कि आत्मामें अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण जो कर्म (भाव कम) प्रगट होता है यह नये कर्मबन्धका हेतु (निमित्त) है।
तीसरा उल्लेख पंचाध्यायी पृ० १५९ के विदोषार्थका है। इसमें कर्मको निमित्तताको स्वीकार कर व्यवहार कर्तारूपसे उसका उल्लेख करके मन, वाणी और श्वासोच्छ्वासके प्रति जीवका भी व्यबहार कर्ता रूपसे उल्लेख किया गया है।
चौथा उल्लेख इष्टोपदेश श्लोक ३१ की संस्कृत टोकासे उक्त किया गया है। इसमें कहीं (अपने परिणामविशेषमें) कर्मको और कहीं (अपने परिणामविशेषमें) जीवको बलवत्ता स्वीकार की गई है ।
पाँचयां उल्लेख तत्त्वार्थबार्तिकका है । इसमें जीवके चतुर्गतिपरिभ्रमणमें कर्मोदयकी हेतुता और उसकी विश्रान्तिमें कर्मक उदयामावको हेतुरूपसे स्वीकार किया गया है।
छठा उल्लेख उपासकाध्ययनका है। इसमें व्यवहारनयसे जीव और कर्मको परस्पर प्रेरक बतलाया गया है । इसकी पुष्टि नौ और नाविको दृष्टान्त द्वारा की गई है। सातवां उद्धरण भी उपासकाध्ययनका ही है। इसमें अग्निके संयोगको निमित्त कर गरम हए जलवे दृष्टान्त द्वारा कर्मको निमित्त कर जीव में संक्लेश भावको स्वीकार किया गया है।
आया उदाहरण आत्मानुशासनका है । इसमें व्यवहारनयसे कमको ब्रह्मा बतला कर संसार-परिपाटी उसका फल बतलाया गया है।