Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका और उसका समाधान माना जाय तो प्रत्येक कार्य अन्यके द्वारा होता है यह लिखना निरर्थक हो जाता है । प्रकृतमें इन दो विकल्पोंके सिवाय तीसरा विकल्प तो स्वीकार किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि उसके स्वीकार करने पर बाह्य सामग्री अकिंचित्कर माननी पड़ती है। अतएव 'कत्थ वि बलिओ' इत्यादि वचनको व्यवहारनयका कथन ही जानना चाहिए जो क्रमको बलवत्तामें जीवकी पुरुषार्थ हीनताको और कर्मकी हीनतामै जीवको उत्कृष्ट पुरुषार्थताको सूचित करता है । स्पष्ट है कि उक्त कथनसे यह तात्पर्य समझना चाहिए कि जब जीव पुरुषार्थहीन होता है तब स्वयं अपने कारण वह अपना कल्याण करनेमें असमर्थ रहता है और जब उत्कृष्ट पुरुषार्थी होकर आत्मोन्मुख होता है सब वह अपना कल्याण कर लेता है ।
इस प्रकार उक्त आठों आगम प्रमाण किस प्रयोजनसे लिपिवञ्च किये गये हैं और उनका क्या आशय लेना चाहिए इसका खुलासा किया ।
__ ५ सम्यक् नियसिका स्वरूपनिर्देश अब हम अपर परम पविताका ३ को गनमें रखकर नियतिवादके सम्यक स्वरूपपर संक्षेपमें प्रकाश हालगे । इसका विशेष विचार यद्यपि पांचवीं शंकाके तीसरे दौरके उसरमें करेंगे, फिर भी जब प्रस्तुप्त प्रतिशंकामे इसकी चरचा की है तो यहाँ भी उसका विचार कर लेना आवश्यक समझते हैं ।।
अपर पक्षने सभी कार्योका सर्वथा कोई काल नियत नहीं है इसके समर्थन में तीन हेतु दिये हैं
१. आचार्य अमतचन्द्र ने कालनय-अकालनय तथा नियतिनय-अनियतिनय इन नयोंकी अपेक्षा कार्य की सिद्धि बतलाई है, इसलिए सभी कार्योका सर्वथा कोई काल नियत नहीं है।
२. सभी कायोंका काल सर्वथा नियत नहीं है ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है और किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है, अतः आगे-पीछे करनेका प्रश्न ही नहीं उठता ।
३. कर्म स्थितिबन्धके समय निषेक रचना होकर यह नियत हो जाता है कि अमुक कर्मवर्गणा अमुक समय उदयमें आबेंगी, किन्तु बन्धावलिके पश्चात उत्कर्षण, अगकर्षण, 'स्थतिकाण्डकघात, उदीरणा, अविपाक निर्जरा आदिसे फर्मवर्गणा आगे-पीछे भी उदय आती है। इससे भी ज्ञात होता है कि सभी कार्य नियत कालमें ही होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता।
ये तीन हेतु है । इनके आधारसे अपर पक्ष सभी कार्यों के सर्वथा नियत कालका निषेध करता है । अब आगे इनके आधारसे क्रम विचार किया जाता है
१. प्रथम तो प्रबचनसारमै निर्दिष्ट कालनय-अकाउनय तथा नियत्तिनम-अनियतिनयके आधारसे बिचार करते हैं । यहाँ प्रथमतः यह समझने योग्य बात है कि वे दोनों मप्रतिपक्ष नययुगल है, अतः अस्तिनय-नास्तिनय इस सप्रविपक्ष नययुगलके समान ये दोनों नययुगल भी एक ही कालमें एक ही अर्थमें विवक्षाभेदसे लागू पड़ते हैं, अन्यथा वे नय नहीं माने जा सकते । अपर पक्ष इन नययुगलोंको नयरूपसे तो स्वीकार करता है, परन्तु कालभेद आदिको अपेक्षा उनके विषयको अलग-अलग मानना चाहता है इसका हमें आश्चर्य है । वस्तुतः कालनय और अकासनम ये दोनों नय एक कालमें एक ही अर्थको विषय करते हैं। यदि इन दोनोंमें अन्तर है तो इतना ही कि काल नय काल की मुख्यतारो उसी अर्थको विषय करता है और अकालनय कालको गौणकर अन्य हेतुओंकी मुख्यतासे उसी अर्थको विषय करता है । यहाँ भकालका अर्थ है कालके सिवाय अन्य हेतु । इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर सस्वार्थसूत्र में