Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
'अर्पितानपि सिद्धेः' (५-३२) यह सूत्र निबद्ध हुआ है। स्पष्ट है कि जो पर्याय काल विशेषको मुख्यतासे कालनयका विषय हैं, वही पर्याय कालको गजकर अन्य हेतु का है। . प्रयचनसारकी आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीकामें इन दोनों नवों का यही अभिप्राय लिया गया है।
मुल्ला
इन नया प्रारम्भ करने के पूर्व यह प्रश्न उठा कि आत्मा कौन है और वह से प्राप्त किया जाता है ? इसका समाधान करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि यह आत्मा चैतन्य सामान्यसे व्याप्त अनन्त का अधिष्ठाता एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धर्मोको ग्रहण करनेवाले अनन्त नय हैं और उनमें व्याप्त होकर रहनेवाले एक श्रुतज्ञान प्रमाण पूर्वक स्वानुभयसे वह जाना जाता है ( प्रवचनसार परिशिष्ट ) । इससे स्पष्ट विदित होता है कि यहाँ जिन ४७ नयोंका निर्देश किया गया है उनके विषयभूत ४७ धर्म एक साथ एक आत्मामें उपलब्ध होते हैं, अन्यथा उन नयोंमे एक साथ श्रुतज्ञान प्रमाणको व्याप्ति नहीं बन सकती 1 अतएव प्रकृतमें काल्नय और अकालनय के आधारसे तो यह सिद्ध करना सम्भव नहीं है कि सब कमका सर्वथा कोई नियत काल नहीं है । प्रत्युत इनके आधार से यही सिद्ध होता है कि कालनयकी विषयभूत वस्तु ही उसी समय विवक्षाभेद से अफालनायकी भी विषय है । अतएव सभी कार्य अपने-अपने कालमें नियतक्रमसे ही होते है ऐसा निर्णय करना ही सम्यक् अनेकान्त है ।
यह तो कालनय और अकालनयकी अपेक्षा विचार है। नियतिनय और अनियतनयकी अपेक्षा विचार करनेपर भी उक्त तथ्यकी ही पुष्टि होती है, क्योंकि प्रकृतमं द्रव्योंकी कुछ पर्यायें क्रमनियत हों और कुछ पर्यायें अनियतक्रमसे होती हों यह अर्थ इन नयोंका नहीं है। यदि यह अर्थ इन नयोंका लिया जाता है। सो ये दोनों सप्रतिपक्ष नय नहीं बन सकते । अतएव विवक्षाभेदसे में दोनों नय एक ही कालमें एक हो अर्थको विषय करते हैं यह अर्थ ही प्रकृतमें इन नयका लेना चाहिए । आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसारमें इन नयोंका जो स्पष्टीकरण किया है उससे भी इसी अभिप्रायकी पुष्टि होती है। उनके उक्त कथन के अनुसार नियति पदका अर्थ हं द्रव्यकी सब अवस्थाओं में व्याप्त होकर रहनेवाला त्रिकाली अन्ययरूप द्रव्यस्वभाव और अनियत पदका अर्थ है क्षण-क्षण में परिवर्तनशील पर्याय स्वभाव । 'उत्पाद व्यय श्रीव्ययुक्तं सत्' (त० सू० ५-३० ) तथा 'सद्रव्यलक्षणम्' (त० सू० ९ - २९) इन आगम वचनोंके अनुसार भी प्रत्येक नय प्रत्येक रामयमे जहाँ उक्त दोनों प्रकारके स्वभावोंको लिये हुए है वहीं विवक्षा भेदसे उसे (द्रव्यको ) ग्रहण करनेवाले ये दोनों नय हैं । नियविनय प्रत्येक द्रव्यके द्रव्यस्वभावको विषय करता है और अनियतनय प्रत्येक द्रव्यके पर्याय स्वभावको विषय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अतएव उक्त दोनों नयोंके आघारसे भी यह सिद्ध नहीं होता कि द्रव्योंकी कुछ पर्यायें अनियत क्रमसे होती हैं, प्रत्युत इन नयोंके स्वरूप और विषय पर दृष्टिपात करने से यही सिद्ध होता है कि धर्मादि द्रव्योंके समान जीव और पुद्गल इन दो हव्यों को भी सभी पर्या में अपने-अपने कालमें नियतकरसे ही होती हैं । सत्का अर्थ ही यह है कि जिस कालमें जो जिसरूपमें सत् है उस कालमें वह उस रूपमें स्वरूपसे स्वतः सिद्ध स्वयं सत् है । उसकी परसे प्रसिद्धि करना यह तो मात्र व्यवहार है, जो मात्र इस तथ्य को सूचित करता है कि विवक्षित समय में विवक्षित द्रव्य जिस रूपमें सत् है, उससे अगले समय में सद्रूपमें वह किस प्रकारका होगा । कारण कार्यभावकी चरितार्थता भी इसी व्यवहारको प्रसिद्ध
पर्यायें क्रमनियत होती हैं और कुछ
करने में है | उससे अन्य प्रयोजन फलित करना यह तो सत्के स्वरूप में हैं अपर पक्ष इस तथ्य पर दृष्टिपात कर हृदयसे इस बातको स्वीकार कर
हस्तक्षेप करनेके समान है । आशा लेगा कि जिस द्रव्यकी जो पर्याय