Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
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नहीं है । मूलाराधनामें 'कम्माई बलियाई' यह गाथा उस प्रसंगमें आई है जब निर्यापकाचार्य क्षपकको अपनी समाधिमें दा करने के अभिप्रायसे कर्मकी बलवत्ता बतला रहे हैं और साथ ही उसमें अनुरजायमान न होकर समताभाव धारण करने की प्रेरणा दे रहे हैं । यह तो है कि जिस समय जिस कर्मका उदय-उदीरणा होती है उस समय आत्मा स्वयं उसके अनुरूप परिणामका कर्ता बनता है, क्योंकि अपने उपादानके साथ उस परिणामकी जिस प्रकार अन्तर्व्याप्ति है उसी प्रकार उस कके उदयके साथ उसको बाह्य व्याप्ति है। फिर भी आचार्य ने यहां पर कर्मोदयकी बलवत्ता बतलाकर उसमें अनरंजायमान न होनेकी प्रेरणा इसलिए दी है कि जिससे यह आत्मा अपनी स्वतन्त्रताके भावपूर्वक कर्मोदयको निमित्तकर होनेवाले भावोंमें अपनेको आवर न किये रहे।
स्वाभिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २११ द्वारा पुद्गल द्रश्यकी जिस शक्तिका निर्देश किया है उसका आशय इतना ही है कि जब यह जीव केवलज्ञानवे अभावरूपसे परिणमता है तब केवलज्ञानावरण व्यकर्मका उदय उसमें निमित्त होता है । यदि ऐसा न माना जाय और पुदगल व्यकी सर्वकाल यह शक्ति मानी जाय कि वह केवलज्ञान स्वभावका सर्वदा विनाश करनेकी सामर्थ्य रखता है तो कोई भी जीव केवलज्ञानी नहीं हो सकता । स्पष्ट है कि उक्त वचन द्वारा आचार्य पदमल द्रव्यकी केवलज्ञानावरणरूप उस पर्यायकी उदमशक्तिका निर्देश किया है जिसको निमित्तकर जीष केवलज्ञान स्वभावरूपसे स्वयं नहीं परिणमता । ऐसा ही इनमें निमित्त-नैमित्तिक योग है कि जब यह जीव केवलज्ञानरूपरी नहीं परिणमता तब उसमें केवलज्ञानावरणका उदय राहज निमित्त होता है । इमीको व्यवहारनायसे यों कहा जाता है कि केवलशानावरणके उदयके कारण इस जीवके केवलज्ञानका घात होता है। स्वामिकातिकयानुप्रेक्षाका यह उपकार प्रकरण है । उसी प्रसंगसे उक्त गाथा आई है, अतएव प्रकरणको ध्यानमें छकर उसके हार्दको ग्रहण करना चाहिए ।
शंका के द्वितीय उत्तरम स्वा० का अ० गाथा ३१९ के आधारसे जो हमने यह लिखा कि शुभाशुभ कर्म जीवका उपकार या अपकार करते हैं तो यह कथन शुभाशुभ क्रमक उदयके साथ जीवके उपकार या अपकारको बाध व्याप्तिको ध्यानमें रखकर ही किया गया है । इस जीवको कोई लक्ष्मी देता है मा कोई उपकार करता है यह प्रश्न है । इमी प्रश्नका समाधान गाथा ३१९ मे करते हुए बतलाया है कि लोकमें इस जीवको न तो कोई लक्ष्मी देता है और न अन्य कोई उपकार ही करता है । किन्तु उपकार या अपकार जो भी कुछ होता है वह सब शुभाशुभ कर्मको निमित्त वर होता है।
यह आचार्य वचन है । इरा द्वारा दो बातें स्पष्ट की गई है। पूर्वाधं द्वारा तो जो मनुष्य यह मानते है कि 'अमुक देवी-देवता आदिसे मुझे लक्ष्मी प्राप्त होगो या मेरी अमुक आपत्ति टल जायेगी' उसका निषेध यह कह कर किया गया है कि लोकम' जो कुछ भी होता है वह शुभाशुभ कर्भक उदयको निमित्त कर ही होता है । बाह्य सामग्री के मिलानेकी घिन्तामें आरमवंचना क्यों करता है ? अनुफूल बाह्म सामग्री हो और अपाभ कमका उदय हो तो बाह्य सामग्रीसे क्या लाभ ? उसका होना और न होना बराबर है । तथा वारा यह सूचित किया गया है कि शुभाशुभ कर्म तरी करणीका फल है, इसलिए जैसी तूं करणी उसीके अनुरूप कर्मबन्ध होगा और उत्तर कालमें उसका फल भी उसीके अनुरूप मिलेगा। अतएव तूं अपनी करणीकी ओर ध्यान द । शुभाशुभ कर्म तो उसकार-अपकारम निमित्तमात्र है, वस्तुत: उनका कर्ता तो तूं स्वयं है । यह नय वचन है; इस समझकर यथार्थको ग्रहण करना प्रस्येक सत्पुरुषका कर्तव्य है । अन्यथा शुभाशुभ कर्मका सहभाव सदा रहलेसे कभी भी यह जीव उससे मुक्त न हो सकेगा।