Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा रूप होनेसे वह आत्मानुभूतिसे भिन्न है । जो तत्त्वोंकी अप्रतिपत्तिरूप मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि पुद्गलद्रज्यके परिणामरूप होनेसे वह आत्मानुभूतिसे मिन्न है।
आगममें द्रव्याथिकनयके जितने भेव निविष्ट किये गये है उनमें एक परमभावग्राहक द्रव्याथिकनम भी है । इसके विषयका निर्देश करते हुए आलापपतिमें लिखा है--
परमभावनाहकद्रव्याथिको यथा-ज्ञानस्वरूप आत्मा। आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसे स्वीकार करनेवाला परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय है। इसी तथ्यको नयन क्रादिसंग्रहमें इन शब्दों में व्यक्त किया है
गेलइ दव्वसहावं असुख-सुद्धोवयारपरिचत्तं ।
सो परमभावगाही गायब्वो सिद्धिकामेण ||१९९।। · जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित भावोंसे रहित द्रव्यस्वभावको ग्रहण करता है उसे सिद्धि (मुक्ति) के इक भश्य जीवों द्वारा परमभावनाही द्रव्यार्थिकनय जानना चाहिए ।।१९९॥
तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्गमें अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित भावोंको गौणकर एक त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव आत्मा ही आश्रय करने योग्य बतलाया गया है। जो आसन्न भव्य जीव ऐसे अभेद स्वरूप आत्माको लाकर (ध्येय बनाकर) तन्मय होकर परिणमता है उसे जो आत्मानुभूति होती है उसे उस काल में रागानुभूति त्रिकालमें नहीं होती। यही कारण है कि समयसारको उक्त गाथाओं द्वारा ये रामादि भाव जीवके नहीं हैं यह कहा गया है।
इस प्रकार ये रागादि भाव जीवके नहीं है इस तथ्यका सकारण ज्ञान हो जाने पर भी इन्हें पौद्गलिक कहनेका कारण क्या है यह जान लेना आवश्यक है । यह तो सभी मुमुक्षु जानते है कि जिसे जिनागममें मिध्यादर्शन या मोह कहा गया है उसका फल स्व-परमें एकत्वबुद्धिके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है और जिसे राग-द्वेष कहा गया है उसका फल भी परमें इष्टानिष्ट बुजिके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। यतः परके संयोगमें एकल्व बुद्धि तथा इष्टानिष्ट बुद्धि इस जीवके अनादि कालसे होती आ रही है। इसका कर्ता मह जीव स्वयं है। पर पदार्थ इसका कर्ता नहीं । परका संयोग बना रहे फिर भी यह जीव उसके आश्रयसे एकत्वनुद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि न करे यह तो हैं । किन्तु परपदार्थ स्वयं कर्ता बन कर इस (जीब) में एकत्व बृद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि उत्पन्न कर दे यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। वतः उक्त प्रकारकी एकत्वबुद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि पुद्गलकी विविध प्रकारको रचनाका आलम्बन करनेसे होती है, अन्यथा नहीं होती, यही कारण है कि अध्यात्ममें मोह, राग और द्वेष आदि भावोंको पौद्गलिक कहा गया है ।
यह वस्तुस्थिति है । मोक्षमार्गमें आलम्बन या ध्येयकी दृष्टिसे मोह, सग और द्वेषमें निजस्व बुद्धि करनेका तो निषेध है ही। जेयके करण (ज्ञेयको) मैं जानता हूँ इस प्रकारके विकल्पका भी निषेध है। इतना ही क्यों ? सम्यग्दर्शनादि स्वभाव भाव मेरा स्वरूप है, इन्हें आलम्बन बनानेसे मुझमें मोक्षमार्गका प्रकाश होकर मुक्तिकी प्राप्ति होगी ऐरो विकल्पका भी निषेध है, क्योंकि जहाँ तक विकल्पबुद्धि है वहाँ तक राग की चारतार्थता है। ज्ञायक स्वभाव आस्माके अबलम्बनसे तन्मय परिणमन द्वारा जो सम्यग्दर्शनादिरूप शुद्धि उत्पन्न होती है, तन्मय आत्माकी अनुभूति मन्य वस्तु है और भेद-जुद्धि द्वारा उत्पन्न हुई विकल्पानुभूति अन्य वस्तु है। यह रागानुभूति ही है, आत्मानुभूति नहीं । आचार्य कहते है कि जबतक अवलम्बन ( पंथ ) निर्विकल्प नहीं होगा तबतक निर्विकल्प अनुभूतिफा होना असम्भव है । यही