Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा न माना जाय तो सतत मोहोदयके विद्यमान रहने के कारण यह आत्मा भेदविज्ञानके बलसे कभी भी भाव्यभावक संकर दोषका परिहार नहीं कर सकता 1 इस प्रकार उक्त कथन द्वारा आत्माकी स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है। आत्मा स्वयं स्वतन्त्रपने मोहोदयरो अनुरंजित हो तो ही माहोदय रंजक है, अन्यथा नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
समयसार गाथा १९८ में भी इसी तथ्यको सूचित किया गया है कि जितने अंशमें जीव पुरुषार्थहीन होकर कर्मोदयल्प विपासे युक्त होता है उतन अशमें जीवमें विभाव भाव होते हैं । अतः ये परके सम्पर्क में हुए हैं इसलिए इन्हें परभाव भी कहते है और ये आत्माके विभावरूप भाव होनेसे स्वभावरूप भावोंसे बहिर्भूत है, इसलिए हेय है । यदि इनमें इस जीवको हेय बुद्धि हो जाय तो परके सम्पर्कमें भी हेय बुद्धि हो जाय यह तथ्य इस गाथा वारा सूचित किया गया है । स्पष्ट है कि यहाँ भी आत्माकी स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है। कर्मोदय बलपूर्वक इसे विभावरूप परिणमाता है यह इसका आशय नहीं है । किन्तु जब वह जीव स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक कर्मोदवसे युक्त होता है तब नियमसे विभावरूप परिणमता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। समयसार गाथा १९९ का भी यही आशय है । समयसार माथा २८१ में उक्त कथनसे भिन्न कोई दूसरी बात कही गई हो ऐसा नहीं समझना चाहिए। जिसको निर्मित कर जो भाव होता है, वह उससे जायमान हुआ है ऐसा कहना आगम परिपाटी है जो मात्र किस कार्यमें कौन निमित्त है इसे सूचित करनेके अभिप्रायसे ही आगममें निर्दिष्ट की गई है। विशेष खुलासा हम पूर्वमें ही कर आये हैं। उपादान में होनेवाले व्यापारको पृथक् सताक बाह्म सामग्री त्रिकालमें नहीं कर सकती इस तथ्यको तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेंगा । अतएव आत्मामें उत्पन्न होनेवाले राग, द्वेष और मोह कर्मोदयसे उत्पन्न होते हैं ऐसा कहना व्यवहार कथन ही तो ठहरेगा। इसे परमार्थभूत (यथार्थ) कथन तो किसी भी अवस्थामें नहीं माना जा सकता। समयसारवी उक्त गाथाओंमें इमी सरणिको लक्ष्यमें ररतकर उक्त कथन किया गया है। तथा यही आशय उनको टीका द्वारा भी व्यक्त किया गया है। यदि अपर पक्ष निमित्त व्यबहारके योग्य बाह्य सामग्री में यथार्थ कर्तृत्वकी बुद्धिका त्याग कर दे तो पूरे जिनागमकी संगति बैठ जाय । विशेषु किमविकम् ।
पञ्चास्तिकाय गाथा १३१ की टोकापर हमने दृष्टिपात किया है। इसमें मोह तथा पुण्य-पापके योग्य गुभाशुभ भावोंका निर्देश किया गया है और साथ ही वे विराको निमित्त कर होते हैं मह भी बतलाया गया है। पञ्चास्तिकाय गाथा १४८ का भी यही आशय है इस तथ्यको स्वयं आचार्य अमृतचन्द्र 'बहिरङ्गातरङ्गबन्धकारणाख्यानमेतत्-यह बन्धके बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग कारणका कथन है' इन पदों द्वारा स्वीकार करते हैं। गाथा १५०-१५१ में तो प्रत्यकर्ममोक्षके हेतुभूत परम संवररूपरो भावमोक्ष के स्वरूपका विधान है | गाथा १५६ की टीकाका 'मोहनीयोदयानुवृत्तिवशात्' पद ध्यान देने योग्य है । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जब यह जीव मोहनीयके उदयका अनुवर्तन करता है तभी यह उससे रम्जित उपयोगवाला होता है और तभी यह पर द्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है।
इस प्रकार समयसार और पञ्चास्तिकायके उक्त उल्लेखोसे उसी तथ्यकी पुष्टि होती है जिसका हम पूर्व में निर्देश कर माये हैं। बाहा सामग्री दूसरेको बलात् अन्यथा परिणमाती है यह उक्स वचनोंका आषाय नहीं है, जैसा कि अपर पक्ष उन वचनों द्वारा फलित करना चाहता है।
परमात्मप्रकाशके उल्लेखोंका आशम क्या है इसकी चर्चा हम पूर्वमें ही विस्तारके साथ कर आये हैं । मूलाराधना गा० १६२१ तथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा माथा २११ का भी आशय पूर्वोक्त कथनसे भिन्न