Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
३१ परिणत होनेकी योग्यता का अभाव है याने जो कभी कर्मरूपसे परिणत हो ही नहीं सकते है उन्हें जीव द्रव्य ' कैसे कर्मरूप बना सकेगा, इसलिए यदि यह माना जाय कि ऐसे पुद्गलोंको जीवद्रश्य कर्म रूपसे परिणत करेगा जिनमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता विदा मान है तो फिर 'जीव अपरिणमनशील अर्थात् परिगमनको यौम्मतासे रहित पुद्गलको कर्मरूपरो परिणमन कराता है, यह करर गाथा ११८ के पूर्वार्द्ध में प्रतिज्ञात सिद्धान्त मिथ्या हो जाता है । इस तरह माथा ११६ से संसूचित यह सिद्धान्त ही लीक है कि जीवके साथ पुद्गलकी अपनी बद्धता होती है । ऐसा नहीं समझना चाहिये कि जीवके साथ संयोग होनेगर भी पुद्गल स्वयं अबद्ध ही बना रहता है। इसी तरह 'जीवके साथ संयुक्त होनेपर पृदगल में स्वयंकी कर्मरूप परिणति हो जाया करती है। ऐसा नहीं समझना चाहिये कि जीवके साथ संयुक्त होकर भी पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणतिसे अलग ही बना रहता है । इस प्रकार यह बात निश्चित हो जाती है कि कर्मरूप परिणतिको प्राप्त पृद्गलद्रव्यको हो कर्मरूप अवस्था है और इस तरह ज्ञानावरणादि आठ फर्मरूप जितनी भी अवस्थाएँ बनती हैं ये सब पुद्गलकी ही अवस्थाएँ हैं।
इस विवेचनसे बिल्कुल स्पष्ट है कि ११६ आदि गाथाओंमें पठित 'स्वयं' शब्दका अर्थ 'अपने आप' न होकर 'अपने रूप' ही करना चाहिये ।
हम आम नागमके एक दो और भी ऐसे प्रमाण यहाँ दे रहे हैं जिनमें 'स्वयमेव' या 'स्वयं' शब्दका 'अपने आप' अर्थ न होकर 'आप हो' अर्थ होता है। इसके लिये समयसारकी ३०६ व ३०७ गाथाओंकी आरमख्याति टीकाको देखिये । इन गाथाओंकी टोकामें पठित 'स्वयमेवापराधत्वात्' तथा 'स्वयममृतकुम्भो भवति' इन वाक्योंमें 'स्वयं' शब्दका 'आप ही' यह अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार समयसारगाथा १३ को आत्मख्याति टीकामें पठित स्वयमेकस्य पुण्यपापास्त्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः' इस वाक्यमें भी 'स्वयं' मान्दका 'आप रूप' अर्थ ही अभीष्ट है।
आगे आपने लिखा है कि 'समयसार गाथा १०५ में उपचारका जो अर्ध प्रथम प्रश्नके उत्तर में किया गया है वह अर्थ संगत है।' इस विषय में हमने द्वितीय प्रतिशंकामें जो आशय व्यक्त किया था, उसके ऊपर आपने गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया। अब इस प्रतिशंकामें भी पूर्वमें उपचारके अर्थक विषयमें हम विस्तार पूर्वक लिख अाये है जिसपर आप अवश्य ही गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे।
आपने उपचार शब्दके अपने द्वारा किये अर्थको संगतिके लिये जो धवल पुस्तक ६ पुष्ठ ११ का प्रमाण उपस्थित किया है उसके विषयमें हमारा कहना यह है कि उक्त प्रकरणमें आत्मामें विद्यमान कर्तत्वका उपचार उससे (आत्मासे) अभिन्न (एक क्षेत्रावगाही) पुद्गलद्रव्यमें किया गया है, इसलिये 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते' उपचारकी यह व्याख्या यहाँपर पटित हो जाती है, परन्तु ऐसा उपचार प्रकृतमें सम्भव नहीं है। कारण कि आत्माके कतत्वका उपचार यदि द्रव्यकर्ममें आप करेंगे तो इस उपचार के लिये सर्वप्रथम आपको निमित्त तथा प्रयोजनको देखना होगा, जिनका कि यहाँपर सर्वथा अभाष है । इस विषयका विवेचन हम इस लेख में पहले कर ही चुके है।
नोट-इस विषयमें प्रश्न ५,६,११ ओर १७ पर भा दृष्टि डालिये।