Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका १ और उसका समाधान
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इस विषयमें हमारा कहना यह है कि 'स्वयमेव' पद कुन्दकुन्द स्वामीके अन्थोंमें जहाँ भी कार्यकारणभावके प्रकरणमें आया है वहीं सर्वत्र उसका अर्थ 'अपने रूप' अर्थात् 'स्वयं की वह परिणति है.' 'या स्वयंमें ही बह परिणति होती है। ऐसा ही करा चाहिए । 'बिना सहकारी कारणके अपने आप यह परिणति होती है' ऐसा अर्थ कदापि संगत नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि समयसार गाथा ८० व ८१ में तथा गाथा १०५ में और इसके अतिरिक्त अन्म बहुत स्थानोंमें भी आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा तथा इसी प्रकार समस्त आचार्य परम्पराके आग मसाहित्यमें उपादानकी स्थपरप्रत्ययरूप प्रत्येक परिणति निमित्तसापेक्ष ही स्वीकार की गयी है और यह हम पूर्वमें स्पष्ट कर चुके हैं कि निमित्त भी उपादानकी तरह कार्योत्पत्तिमें सहकारी कारणो रूपमें वास्तविक तथा अनिवार्य ही है, कल्पित नहीं; अतः उपादानकी स्वपरप्रत्यय परिणसि निमित्तकारणके सहयोगके बिना अपने आप ही हो जाया करती हैयह मान्यता आगम विरुद्ध है। इसलिए यही मानना श्रेयस्कर है कि कार्यकारणभावके प्रकरण में जहाँ भी आगम साहित्य में 'स्वयमेव' पद आया है वहां पर उसका अर्थ वही करना चाहिए जो हमने ऊपर लिखा है। ..
___ आपने लिखा है कि प्रवचनसार गाया १६९ में 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'स्वयं ही' है, 'अपने रूप' नहीं । और आगे लिखा है कि इसके लिए समयसार गाथा ११६ आदि तथा १६८ संख्याक गाथाओंका अवलोकन करना प्रकृतमें उपयोगी होगा।'
इस पर हमारा कहना यह है कि किसी भी शब्दका अर्थ प्रकरणके अनुसार निश्चित किया जाता है । जैसे प्रवचनसार गाथा १६८ की श्री अमृतचन्द्र आचार्यकृत टोकामें पठित 'स्वयमेव' शब्दका अर्थ प्रकरणानुसार 'अपने आप ही आपने ठीक माना है और हम भी वहीं इसी अर्थको ठीक समझते हैं । कारण कि वहीं प्रकरणके अनुसार यह दिखलाया गया है कि लोक पुद्गलकायोंसे स्वतः ही व्याप्त हो रहा है, उसका कारण अम्म नहीं है; लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आगममें जहाँ भी 'स्वयमेव' पदका पाठ किया गया है वहाँ सर्वत्र उक्त १६८वी गाथाको टीकाके 'स्वयमेव' पदके समान 'अपने आप' अर्थ करना ही उचित होगा। जैसे भोजनके समय 'सैन्धन' शब्दका नमक अर्थ लोकमें लिया जाता है और युद्धादि कार्योंके अवसर पर 'सैन्धव' शब्द का घोड़ा' ही अर्थ लिया जाता है इसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए ।
समयसार गाथा ११६ आदिमें जो 'स्वयं' शब्द आया है उसका भी अर्थ 'अपने आप' नहीं माना जा सकता है। कारण कि उन माथाओंमें पठित 'स्वयं' शब्दका इतना ही प्रयोजन ग्राह्य है कि पुदगल कर्मवर्गणाएँ ही कर्मरूपसे परिणत होती है, जीवका पुद्गलमे कर्मरूपसे परिणमन नहीं होता। वे गाथाएँ निम्न प्रकार है
जीवे ण सयं बद्धं ण सयं परिणमदि कम्मभावेण । जइ पुग्गलदबमिणं अप्परिणामी तदा होदि ॥११॥ कम्मइयबग्गणासु य अपरिणमंतीसू कम्मभावेण । संसारस्स अभावो पसज्जदे संस्खसमओ. वा ॥११७।। जीवो परिणामयदे पुग्मलदब्वाणि कम्मभावेण । ते सयमारणमंते कहं तु परिणामयदि चेदा ॥११८॥ अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दब्बं । जीवो परिणामयदे कम्म कम्मत्तमिदि मिच्छा ॥११९||