Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (वानिया) तत्वचर्चा और उसको समीक्षा णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चि य होदि पुग्गलं दन्छ ।
तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव ।।१२०।। (पंचकम्) इन गाथाओं द्वारा आचार्य कुन्दकुन्दने पुद्गस द्रव्यके परिणामी स्वभावकी सिद्धि की है । जैसेअथ पुद्गलद्रव्यस्य परिणामिस्वभावत्वं साधयति सांस्यमतानुयायिशिष्य प्रति ।
-उल्लिखित गाथाओंको अवतरणिका अर्थ-उक्त गाथाओंके द्वारा सांस्यमतानुयायी शिष्वके प्रति पुद्गलद्रव्यका परिणामी स्वभाव सिद्ध करते हैं।
वहाँपर पहली बात तो यह है कि रास्यिमतानुयायी पृद्गल इन्धके परिणामी स्वभावको नहीं मानता है, इसलिए आचार्यको इसके सिद्ध करनेकी आवश्यकताको अनुभूति हुई है। दूसरी बात यह है कि इस . अवतरणिकामें 'स्वयं' शब्दका पाठ नहीं होनेसे भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तुके परिणामी स्वभावकी सिद्धि करना ही आचार्यको अभीष्ट रही है, अपने आप परिणामी स्वभावकी नहीं । अब विधारना यह है कि यदि आचार्य कुन्दकुन्दको उक्त गाथाओंके द्वारा अपने आप अर्थात् अन्य (आत्मा) की सहायताको अपेक्षा रहित पुद्गलद्रव्यका कर्मरूपमे परिणामी स्वभाव सिद्ध करना अभीष्ट होता तो आपार्थ अमृतचन्द्र इनकी उक्त अवतरणिकामें 'स्वयमेव' शब्दका पाठ अवश्य करते । दूसरी बात यह है कि गाथा ११५ के उत्तरार्धमें जो संसारके अभावकी अथवा सांख्यमतको प्रशक्तिरूप आपत्ति उपस्थित की है वह पुद्गलको परिणामी स्वभाव न माननेपर ही उपस्थित हो सकती है 'अपने आप परिणामी स्वभाव' के अभावमें नहीं । कारण कि परिणामी स्वभावके अभावमे तो उक्त दोनों आपत्तियोंको प्रसक्ति सम्भव है, परन्तु 'अपने आप परिणामी स्वभाव' के अभावमें वे आपत्तियां इसलिए सम्भव नहीं मालूम देती कि पुद्गल द्रव्यमें 'अपने आप परिणामी स्वभाव' के अभाव में परसापेक्ष परिणामी स्वभावका सद्भाव सिद्ध हो जायगा। ऐसी हालतमें संसारका अभाव अयवा सांख्य समय कैसे प्रसक्त हो सकेगा? यह बात विचारणीय है। एक बात और विचारणीय है कि यदि इन गाथाओंमें 'स्वयं' शब्दका अर्थ 'अपने अप' ग्राह्य माना जायगा तो गाथा ११७ के पूर्वार्ध में भी 'स्वयं' शब्दके पाठकी आवश्यकता अनिवार्य हो जायगी, ऐसी हालत में उसमें आचार्य कुन्दकुन्द 'स्त्रय' शब्दये. पाठ करनेत्री रेक्षा नहीं कर सकते थे । इन सब कारणों से स्पष्ट है कि ११६ आदि गाथाओंमें आचार्य कुन्दकुन्दको 'स्वयं' शब्दका अर्थ अपने आप' अभीष्ट नहीं था, बल्कि अपने रूप' ही अभीष्ट था । इस निष्कर्षके साथ जो इन गाथाओंका अर्थ होना चाहिए यह निम्न प्रकार है
अर्थ-यदि पुदगल द्रव्य जीवमें अपने रूपसे बद्ध नहीं होता और उसकी अपने रूपसे कर्मरूप परिणति नहीं होती तो ऐसी हालतमें वह अपरिणामी ही ठहरता है । इस तरह जब कार्मणवर्गणाएँ कर्मरूपसे परिणत न हों तो एक तो संसारका अभाव हो जायगा, दूसरे शब्दोंमें परिणामी स्वभावका निषेध करनेवाले सांख्पमत की प्रसक्ति हो जायगी । यदि कहा जाय कि जीवद्रव्य पुद्गल ट्रम्पको कर्मभावसे परिणत करा देगा, इसलिए न तो संसारका अभाव होगा और न सांख्यमतकी प्रसक्ति ही प्राप्त होगी, तो जीवद्रव्य कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता रखनेवाले पुद्गलद्रव्यको कर्मरूपसे परिणत करायगा अथवा ऐसे पुद्गलको कर्मरूपसे परिणत फरायमा जिसमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता विद्यमान नहीं है । यदि जीव उन पुद्गलोंको कर्मरूपसे परिणत करावंगा जिनमें कर्मरूपसे परिणत होनेको योग्यता विद्यमान नहीं है तो जिन पुद्गलोंमें कर्मरूपसे