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प्रास्ताविक
मराठी में स्त्री को माउग्गाम कहते हैं। मिथुनभाव अथवा मिथुनकर्म को मैथुन कहते हैं : मातृग्राम तीन प्रकार का है : दिव्य, मनुष्य और तिर्यक् । इनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं : देहयुक्त और प्रतिमायुक्त । देहयुक्त के पुनः दो भेद हैं : सजीव और निर्जीव । प्रतिमायुक्त भी दो प्रकार का है : सन्निहित और असन्निहित । कामियों के प्रेमपत्र-लेखन का विवेचन करते हुए आचार्य ने बताया है कि लेख दो प्रकार होता का है : छन्न-अप्रकाशित और प्रकट-प्रकाशित । छन्न लेख तीन प्रकार का है : लिपिछन्न, भाषाछन्न और अर्थछन्न । सप्तम उद्देश की व्याख्या में कुंडल, गुण, मणि, तुडिय, तिसरिय, वालंभा, पलंबा, हार, अर्घहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, पट्ट, मुकुट आदि आभरणों का स्वरूप बताया गया है । इसी प्रकार आलिंगन, परिष्वजन, चुम्बन, छेदन एवं विच्छेदनरूप काम-क्रीडाओं पर भी प्रकाश डाला गया है। अष्टम उद्देश से सम्बन्धित चूणि में उद्यान, उद्यानगृह, उद्यानशाला, निर्याण, निर्याणगृह, निर्याणशाला, अट्ट, अट्टालक, चरिका, प्रकार, द्वार, गोपुर, दक, दकमार्ग, दकपथ, दकतीर, दकस्थान, शून्यगृह, शून्यशाला, भिन्नगृह. भिन्नशाला, कूटागार, कोष्ठागार, तृणगृह, तृणशाला, तुषगृह, तुषशाला, छुसगृह, छुसशाला, पर्यायगृह, पर्यायशाला, कर्मान्तगृह, कर्मान्तशाला, महागृह, महाकुल, गोगृह, गोशाला आदि का स्वरूप बताया गया है। नवम उद्देश की चूणि में राजा के अन्तःपुर में मुनिप्रवेश का निषेध करते हुए आचार्य ने तीन प्रकार के अन्तःपुरों का वर्णन किया है : जीर्णान्तःपुर, नवान्तःपुर और कन्यकान्तःपुर । इसी उद्देश में कोष्ठागार, भांडागार, पानागार, क्षीरगृह, गंजशाला, महानशाला आदि का स्वरूप भी बताया गया है। एकादश उद्देश की व्याख्या में अयोग्ग दीक्षा का निषेध करते हुए आचार्य ने ४८ प्रकार के व्यक्तियों को प्रव्रज्या के अयोग्य माना है : १८ प्रकार के पुरुष, २० प्रकार की स्त्रियाँ और १० प्रकार के नपुंसक । इसी प्रसंग पर आचार्य ने १६ प्रकार के रोग एवं ८ प्रकार की व्याधि के नाम गिनाये हैं । शीघ्र नष्ट होने वाली व्याधि तथा देर से नष्ट होने वाला रोग कहलाता है। पंचदश उद्देश की व्याख्या में चार प्रकार के आमों का उल्लेख है : उस्सेतिम, संसेतिम, उवक्खड और पलिय। पलिय आम्र पुनः चार प्रकार के हैं : इंधनपलिय, धूमपलिय, गंधपलिय और वृक्षपलिय । षोडश उद्देश की चूणि में चूर्णिकार ने पण्यशाला, भंडशाला, कर्मशाला, पचनशाला, इंधनशाला और व्यधारणशाला का स्वरूप बताया है । इसी उदेश में जुगुप्सित कुलों से आहारादि के ग्रहण का निषेध करते हुए आचार्य ने बताया है कि जुगुप्सित दो प्रकार के हैं : इत्वरिक और यावत्कथिक । सूतक आदि से युक्त कुल इत्वरिक-कुछ समय के लिए जुगुप्सित हैं । लोहकार, कलाल, चर्मकार आदि यावत्कथिक--जीवनपर्यन्त
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