________________
प्रास्ताविक
कोटिकगणीय, वज्रशाखीय गोपालगणि महत्त र का शिष्य बताया है। इसमें आचार्य ने अपनी कृति दशवकालिकणि का भी उल्लेख किया है । आचारांगचूणि :
यह चूणि भी नियुक्ति का अनुसरण करते हुए लिखी गई है । इसमें यत्र तत्र प्राकृत गाथाएँ एवं संस्कृत श्लोक भी उद्धृत किये गये हैं । इन उद्धरणों के स्थल-निर्देश को ओर चूर्णिकार ने ध्यान नहीं दिया है। सूत्रकृतांगचर्णि : ___ आचारांगचूणि और सूत्रकृतांगचूणि की शैली में अत्यधिक साम्य है। इनमें संस्कृत का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक है। विषय-विवेचन संक्षिप्त एवं स्पष्ट है । सूत्रकृतांग की चूणि भी आचारांग आदि की चूणियों की ही भाँति 'नियुक्त्यनुसारी है। जीतकल्प-बृहच्चूर्णि :
सिद्धसेनसूरिप्रणीत प्रस्तुत चूणि में एतत्पूर्वकृत एक अन्य चूणि का भी उल्लेख है । प्रस्तुत चूणि अथ से इति तक प्राकृत में है। इसमें जितनी गाथाएँ एवं गद्यांश उद्धृत है, सब प्राकृत में हैं । यह चूणि मूल सूत्रानुसारी है। प्रारंभ व अंत में चूणिकार ने जोतकल्पसूत्र के प्रणेता आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को सादर नमस्कार किया है । दशवकालिकचूणि ( अगस्त्यसिंहकृत ) :
प्रस्तुत चूणि भाषा एवं शैली दोनों दृष्टियों से सुगम है। जिनदासकृत दशवकालिकचूणि की भॉति प्रस्तुत चूणि भी नियुक्त्यनुसारी है। चूणि के अंत में चूर्णिकार ने अपना पूरा परिचय दिया है । चूर्णिकार का नाम कलशभवमृगेन्द्र अर्थात् अगस्त्यसिंह है । चूणिकार के गुरु का नाम ऋषिगुप्त है । ये कोटिगणीय वज्रस्वामी को शाखा के हैं। प्रस्तुत चूर्णिगत मूल सूत्र-पाठ, जिनदासकृतचूणि के मूल सूत्र-पाठ एवं हारिभद्रीय वृत्ति के मूल सूत्र-इन तीनों में कहीं-कहीं थोड़ा-सा अंतर दृष्टिगोचर होता है। यही बात नियुक्ति-गाथाओं के विषय में भी है । नियुक्ति को कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जो हारिभद्रीय वृत्ति में तो उपलब्ध हैं किन्तु दोनों चूणियों में नहीं मिलती। निशोथ-विशेषचूणि :
जिनदासगणिकृत प्रस्तुत चूणि मूल सूत्र, नियुक्ति एवं भाष्य के विवेचन के रूप में है। इसमें संस्कृत का अल्प प्रयोग है । प्रारम्भ में पीठिका है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org