Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : ६१
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अपूर्व अवसर अपूर्व अबसर एवो क्यारे श्रावशे ? क्यारे थईशु बाह्यान्तर निर्ग्रन्थ जो । सर्व सम्बन्धनु बंधन तीचण छेदी ने, विचरशु क्व महत्पुरुषने पंथ जो । सर्वभावधी औदसीन्य वृत्ति करी, मात्र देह ते संयम-हेतु होय जो । अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नहि, पण किचित् मूर्छा नब जोय जो । दर्शनमोह व्यतीत थई उपज्यो बोध जे, देह भिन्न केवल चैतन्यनु ज्ञान जो। एथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकीए, वत्त एवु शुद्धस्वरूपनु ध्यान जो। श्रात्मस्थिरता व्रण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते देह पर्यन्त जो । घोर परिषह के उपसर्ग भये करी, श्रावी शके नहिं ते स्थिरतानो अन्त जो । संयमना हेतुथी योग-प्रवर्तना, स्वरूपलक्षे जिन-श्राज्ञा श्राधीन जो। ते पण क्षण-क्षण घटती जती स्थितिमां, अंते थाय निज स्वरूपमा लीन जो। पंच विषयमा रागद्वेष-विरहितता, पंच प्रमादे न मले मननो क्षोभ जो । द्रव्य, क्षेत्र ने काल, भाव प्रतिबन्ध विण, विचरवु उदयाधीन पण बीतलोभ जो। क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोध स्वभावता, मान प्रत्ये तो दीनपणानु मान जो । माया प्रत्ये माया साक्षीभावनी, लोभ प्रत्ये नहि लोभ समान जो । बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहिं, वंदे चक्री तथापि न मळे मान जो। देह जाय पण माया थाय न रोममां, लोभ नहि छो प्रबल सिद्धि निदान जो । नग्नभाव, मुण्डभाव सह-अस्नानता, अदंतधावन आदि परम प्रसिद्ध जो। केश, रोम, नख के अंग शृंगार नहि, द्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रन्थ सिद्धि जो । शत्रु-मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता, मानश्रमाने वर्ते ते ज स्वभाव जो। जीवित के मरणे नहि न्यूनाधिकता, भवमोक्षे पण वर्ते शुद्ध स्वभाव जो । एकाकी विचरतो बली श्मशान मां, बळी पर्वतमां वाघ सिंह-संयोग जो। अडोल आसन ने मनमां नहि क्षोभता, परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो । घोर तपश्चर्यामां (पण) मनने ताप नहि, सरस अन्ने नहि मनने प्रसन्नभाव जो । रजकण के रिद्वि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्यां पुद्गल एक स्वभाव जो । एम पराजय करीने चारित्रमोहनो, आवृत्यां ज्यां करण अपूर्व भाव जो । श्रेणी क्षपक तणी करीने प्रारूढ़ता, अनन्य चिन्तन, अतिशय शुद्ध स्वभाव जो । मोह-स्वयंभूरमणसमुद्र तरी करी, स्थिति त्यां ज्यां क्षीणमोहगुणस्थान जो। अन्त समय त्या पूर्णस्वरूप वीतराग थई, प्रगटाऊँ निज केवलज्ञान-निधान जो । चार कर्म घनघाती ते व्यवच्छेद ज्यां, भवना वीज तणो प्रात्यन्तिक नाश जो। सर्वभावज्ञाता द्रष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनन्तप्रकाश जो। वेदनीयादि चार कर्म वर्ते ज्यां, वळी सींदरीवत् श्राकृतिमात्र जो । ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छे, आयुष पूर्णे मटी ए दैहिक पात्र जो । मन, वचन, काया ने कर्मनी वर्गणा, छूटे जहां सकल पुद्गल सम्बन्ध जो । एवु अयोगी गुणस्थानक त्यां वर्ततु, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो ।
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