Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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नगरचतविणी टी० २०१६ धर्मरुय्यनगारचरितवर्णनम्
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आस्वादयति अस्वाय तत् क्षारं कटुकमस्वाद्यमभोज्यं विषभूतं ज्ञात्वा एवमत्रादीत्धिगस्तु मां नागश्रियमन्यामपुण्यां दुर्भगां 'दुभ सत्ताए' दुर्भगसत्वां दुर्भगं= निष्फलं सन्तं बलं यस्याः सा तां व्यर्थपरिश्रमानित्यर्थः ' दूर्भागणिबोलिए ' दुर्भगनिम्बगुलिका निम्वफलिका, तद्वद् दुर्भगा तां= जनैरनादरणीयामित्यर्थः, अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी प्राकृतस्यात्, 'जीए ' यथा खलु मया शारदिकं बहुसंभारद्रव्यसंभृतं स्नेहाव( उवक्खडिता एवं बिंदुयं करयलंसि आसाएइ) जब वह तैयार शाक हो चुका तब उसने उसमें से एक बिन्दु मात्र शाक अपनी हथेली पर रखा और फिर उसे चखा - (आसाइत्ता तं खारं कडुयं अक्खजं अभोजं विसम्भूयं जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्यु णं मम नागसिरीए अहनाए, अपुन्नाए दूर भगाए दुभगसत्ताए दुभगणिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहु संभार संभिए नेहावगाढे उचक्खडिए) चखकर उसे ज्ञात हुआ कि यह शाक तो बहुत खारा है, बहुत अधिक कडुआ है। खाने के योग्य नहीं है भोजन में लेने के लायक नहीं है, यह तो विष जैसा है ऐसा जानकर उसने मन ही मन विचार किया उस विचार में उसने कहा- मुझ नागश्री को धिक्कार है, मैं अधन्या और अपुण्या हूँ । जनों के द्वारा आदर पाने योग्य नहीं हूँ । मेरे इस बल को बार २ धिक्कार हो - मेरा यह बल बिलकुल निष्फल है मैंने जो इस शाक के बनाने में इतना उद्यम किया है वह मेरा सर्वथा निष्फल गया। जिस प्रकार नीम
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उपर घी वस्तु हुनु (अक्खडिता एवं विदुयं करयल सि आसाएइ ) क्यारे શાક તૈયાર થઈ ગયું. ત્યારે તેણે તેમાંથી ફક્ત એક ટીપા જેટલું શાક પેાતાની હથેળી ઉપર લઈને ચાખ્યું.
( आसाइत्ता तं खारं कडुयं अक्खज्जं अभोज्जं विसम्भूयं जाणित्ता एवं वयासी - धिरथु णं मम नागसिरीए अहन्नाए, अपुन्नाए, दुरभगाए दूभगसत्ताए भगजिबोलियाए जीएणं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उबक्खडिए) ચાખવાથી તેને લાગ્યું કે આ શાક તે ખૂબ જ ખારૂં છે, ખૂબ જ કડવું छे, भावासाय नथी, लोभनमा अभ लागे तेवु नथी, या तो और भेवु छे, આમ જાણીને તેણે પાતાંના મનમાં જ વિચાર કર્યાં અને વિચાર કરતાં તેણે પોતાની જાતને જ આ પ્રમાણે કહ્યું કેમને–નાગશ્રીને-ધિકાર છે, હું ખરેખર અધન્યા તેમજ અપુણ્યા છું. હું લેાકેા દ્વારા આદર મેળવવા લાયક નથી. મારા આ બળને વારવાર ધિક્કાર છે, મારૂં આ ખળ સાવ નકામું છે. શાક તૈયાર કરવામાં જેટલા મે' શ્રમ કર્યાં છે તે બધા નકામા ગયા, જેમ શ્રીમ
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