Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अंगराधामृतवषिणी टीका० अ० १६ द्रौपदीचर्या
तदनन्तरं पुनः प्रतिमापूजकैः स्वीकृते-मूलपाठे-'तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि नमेइ ' इति दृश्यते, 'नमेइ' इत्यत्र टीकाकार:-'निवेसेइ' इतिलिखित्वा निवेशयतीत्यर्थ उक्तः, तेनात्र-मूलपाठस्य स्वस्वकपोलकल्पितत्वं सिध्यति, द्रौपद्याश्चरिते टीकाकृताऽभयदेवमरिणा पुनरीदृशः पाठो लब्धः
'ईसिं पच्चुन्नमति २त्ता, करयल०जाव कटु एवं वयासी-नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ नमसइ२ जिणघराओ पडिनिक्खमइ ' इति इमं पाठं टीकायां विलिख्य टीकाकारः प्राह___'तत्र वन्दते चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन,नमस्यति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः । न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनममिहितं सूत्रे इति सूत्रमें जैसा पाठ रुचा है उसने उसी प्रकार मूल पाठ में जिन कल्पना का पाठ प्रक्षिप्त करके पाठ भेद कर दिया है। अतः स्वकपोलकल्पित होने से असली मूल पाठ का निश्चय ही नहीं होता है, द्रौपदी के चरित में टीकोकार अभयदेवसूरि को इस प्रकार को पाठ उपलब्ध हुआ-ईसिं पच्चुन्नमति २, करयल० जाव कट्टु एवं क्यासी-नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ, नमसइ २, जिणघराओ पडिनिक्खमइ इति" पाठ को लिखकर उन्हों ने टीका की। वन्दते-नमस्यति पद के अर्थ का खुलाशा करते हुए वे कहते हैं कि प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधि के अनुसार नमन करना वंदना और इसके बाद प्रणिधान आदि के योग से नमस्कार करना नमन है ऐसा सिद्धान्त वृद्धों का है। सूत्र में जब द्रौपदी का प्रणिपात दृण्डक मात्र चैत्यवंदन कहो है-अर्थात् दण्ड की तरह प्रणाम करने रूप चैत्यवंदन कहा गया है-तो इसी से यह કંઈક ઉમેરે કરીને પાઠ ભેદ કરી નાખે છે. એટલા માટે સ્વપલકલ્પિત હવા બદલ અસલ મૂળપાઠને નિશ્ચય જ થઈ શકે તેમ નથી. દ્રૌપદી ચરિતમાં A२ समयवसूनि। At तो पाठ भन्या छ -( ईसिं पच्चुन्नमत्ति २, करयल० जाब कटु एवं वयासी-नमोत्थुणं अरिहताण भगवंताण जाव संपचाणं वदइ, नमसइ २, जिणधराओ पडिनिक्खमइ इति ) मा याने समान तभरे 1 3 . 'वन्दते ' ‘नमस्यति' ५४॥ मनु २५४२६ ४२di તેઓ કહે છે કે પ્રસિદ્ધ ચૈત્ય વંદન વિધિ મુજબ નમન કરવું. વંદના અને ત્યારપછી પ્રણિધાન વગેરેના વેગથી નમસ્કાર કરે નમન છે, વૃદ્ધોને આ જાતને સિદ્ધાન્ત છે. સૂત્રમાં જ્યારે પ્રણિપાત દંડક માત્ર ચિત્યવંદન કર્યું છે ત્યારે એનાથી જ આ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે બીજા શ્રાવકને પણ આ
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